Thursday, January 28, 2010

READY FOR THE CHANGE?

सलमान खान और दूबे जी में क्या समानता है?जी नहीं,दोनों के फीजिक में ज़मीन आसमान का अंतर है.समानता यह है कि दोनों ही शाहरुख़ खान की चर्चा करना भी पसंद नहीं करते.वो हर बात पर शाहरुख़ का विरोध क्यों करते हैं,यह तो नहीं पता पर दूबे जी अक्सर बताते हैं कि फौजी सीरीयल पहले उन्हें ही ऑफर हुई थी पर किंग खान ने उनका पत्ता काट दिया.यह झूठ हो या सच पर उन्हें आजकल शारुख खान के विरोध में नया मसाला मिल गया है.'मिले सुर मेरा तुम्हारा' के नए वर्सन में उन्हें शाहरुख़ के दिखने पर भी आपत्ति है.उनको लगता है कि यहाँ भी वो उनके देवतुल्य अमिताभ बच्चन की बराबरी कर रहे हैं.तभी गाने की शुरुआत अमिताभ से होती है और खत्म शहरुख से।

दूबे जी को शाहरुख़ का अमिताभ से बराबरी करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता.कहने लगे कि बड़े बुजुर्ग से क्या मुकाबला करना.बच्चनवा के उम्र में देख्नेगे कि शाहरुख़ कितना रोल पायेंगे.गलती दूबे जी कि नहीं,मीडिया ने भी शाहरुख़ बच्चन शीतयुद्ध को ऐसे परोसा है कि हर किसी को इन दोनों के बीच न दिखने वाली यह खाई कभी पटते नहीं दिखाई देती.,दूबे जी को तो नया 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' भी नहीं पसंद.उन्हें पुराना वाला ही अच्छा लगता है.वो कुछ मोहब्बतें फिल्म के नारायण शंकर वाले चरित्र की तरह हैं जिसे परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं।
अब इस गाने का चाहे जो भी संस्करण अच्छा हो,पर परिवर्तन और नए चीजों के विरोध की मानसिकता सिर्फ दूबे जी की नहीं,कमोवेश समाज के एक बड़े भाग की है.चलिए इसका एक निजी एक्साम्पल देता हूँ.भारत में जब मोबाइल सेवाएँ शुरू हुईं तो मैं भी उसके प्रारंभिक कन्जुमर्स में से एक था.हालांकि सेवाएँ बहुत महंगी थी सो जाहिर है कि यह सुविधा डैड्स गिफ्ट ही थी पर कुछ लोगों हेतु मेरा छात्र जीवन में मोबाइल फ़ोन प्रयोग करना मेरे नालायकी का प्रतीक बन गया.आज देखिये.हालात् कितन बदल गए हैं.रोटी,कपडा मकान के साथ मोबाइल भी एक दैनिक जरूरत बन गयी है. इसके बिना तो सामाजिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
हाल ही में एक अत्यंत प्रसिद्ध महिला आधारित मैगजीन गृहलक्ष्मी ने स्पेशल लान्जरी गाईड लांच की है.घरेलु महिलाओं में अत्यंत प्रचलित इस मैगजीन का यह नया तेवर अचानक से कुछ लोगों के आँखों में चुभ सकता है.पर इस तरह का बदलाव इस बात का घोतक है कि हम अब परिवर्तनों को स्वीकार करने में सक्षम हैं.अब हम उन बातों पर खुलकर बात कर सकते हैं जो कभी सिर्फ एक महिला घर की बड़ी महिलाओं से ही करना पसंद करतीं थीं.इसका एक और उदहारण कई प्रसिद्ध रास्ट्रीय पत्रिकाओं द्वारा कराये जा रहे सेक्स सर्वें हैं.सेक्स को लेकर जो हमारी रुढिवादिता है,वो किसी से छुपी नहीं पर इन सर्वेस में लोगों की बढती भागेदारी यह बताती हैं कि बंदिशें टूट रहीं हैं।विज्ञापनों की भी भाषा बदल गयी है.'उन दिनों की बात' बदलकर अब 'हैव अ हैप्पी पीरीयड ' हो गयी है.याद है जब दुलारा फिल्म का 'मेरी पैंट भी सेक्सी' गीत में 'सेक्सी' सेंसर के दवाब में 'फैनसी' हो गया था.आजकल अखबारों के हेड लाइन्स से लेकर सामान्य बोलचाल तक में यह शब्द स्वीकार्य हो चुका है.

वैसे हम पूरी तरह से भी नहीं बदले हैं.यह वही देश है जहाँ रोमांटिक फिल्मों को सपरिवार देखने वाले लोगों द्वारा प्रेम संबंधों में पड़े जोड़ों को मौत के घाट उतर दिया जाता है.जल्द ही वैलेंटाइन डे भी आने वाला है.संस्कृति और सभ्यता के नाम पर फिर राजनीति होगी.प्रेमी जोड़े सरेआम बे इज्ज़त किये जायेंगे.मौके पर घिर गयी लड़कियों से छेड़ छाड़ होगी.मीडिया के कैमरों में यह सब कैद होकर हमें भी दिखेगा.पुलिस फिर सख्ती दिखाएगी, पर यह चीजें रुकेंगी नहीं. मोहब्बतें में तो नारायण शंकर ने भी आखिर में बदलाव को स्वीकार कर लिया था पर समाज में फैले इन अनगिनत नारायण शंकरो को बदलने के लिए भी एक राज आर्यन मल्होत्रा की जरूरत है,क्या आपको नहीं लगता?
3 फरवरी को i-next में प्रकाशित...http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=2/3/2010&editioncode=1&pageno=16

Wednesday, January 20, 2010

यह मर्ज़ कुछ खास है..

फिल्में समाज का दर्पण है,आजकल दूबे जी इस बात को नहीं मानते .कुछ हफ़्तों पहले उन्होंने अमिताभ बच्चन की 'पा' देखी है.बताने लगे कि फिल्म तो ठीक है पर उसे देखने के बाद से उनके दिल में आजकल के डाईरेकटरों के प्रति खासी नाराज़गी पैदा हो गयी है.'नाराज होकर भी क्या बिगाड़ लोगे' की भावना दिल में रखकर जब मैंने इसके बारे में पूछा तो बताने लगे कि यह आजकल के डाईरेक्टर ऐसी ऐसी बीमारियों पर फिल्में बनाते हैं जो कभी सुनी ही नहीं.उनका इशारा जल्द आ रही 'माई नाम इस खान' में शाहरुख़ की बीमारी के तरफ था.कहने लगे कि इससे अच्छा तो उनका दौर था जब हीरो कैनसर,दमा,ब्रेन टूमर से आगे की बीमारियों से ग्रसित होने के बारे में सोच भी नहीं पाता था.मैंने समझाया कि हर युग में अलग प्रकार की बीमारियों का फॉर्मेट होता हैं .इन आउटडेटेड बीमारियों से तो आजकल हर कोई ग्रसित है.इन्हें देखने कौन हॉल में जाने वाला है?


बहस छिड़ चुकी थी.दूबे जी कहने लगे कि जब आजकल रेअलिस्टिक फिल्में ज्यादा बन रहीं हैं तो बीमारियाँ भी रेअलिस्टिक होनी चाहिए.मधुमेह,बवासीर,रतौंधी,मोतियाबिंद,दाद-खाज,जैसी आम जनता की बीमारियों से जुडी समस्याओं को,फिल्मों के द्वारा क्यों नहीं सामने लाया जाता?उनके द्वारा गिनाये गए इन बीमारियों की लिस्ट में से अधिकतर से वो ग्रसित हैं सो मैंने बहस करके उनके घावों पर नमक छिड़कना सही नहीं समझा.बात आई गयी हो गयी पर इस बहस ने एक नए सवाल को जन्म दिया.क्या वाकई बॉलीवुड उन बीमारियों को ज्यादा तरजीह देता है जो बहुत कम या रेयर हैं.गजनी के आमिर खान को anterograde amnesia नामक बीमारी है,तो पा में अमिताभ बच्चन प्रोज़ेरिया नामक बीमारी से पीड़ित हैं.माई नाम इस खान में शाहरुख़ खान को Asperger syndrome(autism)परेशान कर रहा है,तो 'ब्लैक' में भी अमिताभ बच्हन Alzheimer's disease ढो रहे होते हैं.सारी बीमारियाँ लाखों में एक को होती है.
वैसे इन ख़ास बीमारियों और बॉलीवुड का पुराना नाता है.'आनंद' के राजेश खन्ना को कौन भुला सकता है जिसको 'लिम्फोसार्कोमा आफ इन्टेस्ताईन' था.आज भी हृषिकेश मुखर्जी की यह अप्रतिम कृति हमारे आँखों में आंसू ला देता है.वैसे काका ने 1969 में एक मूवी 'ख़ामोशी' भी की थी जिसमे वो acute mania से ग्रसित थे.अमिताभ बच्चन की हालिया 'पा'को छोड़ भी दें तो उन्होंने अनेक ख़ास बीमारी ग्रस्त किरदार निभाए हैं.१९७४ में उन्होंने 'मजबूर' की थी जिसमे वो terminal brain tumor से पीड़ित थे.ब्लैक का उनका किरदार तो भूला ही नहीं जा सकता.अजय देवगन ने भी 'दीवानगी' में split personality नामक चिड़िया के बारे में बताया.हाल फिलहाल के फिल्मों की बात करें तो २००७ में रीलीज़ 'तारे ज़मीन पर' एक ऐसे बच्चे की भावनात्मक कहानी थी जिसे dyslexia नामक बीमारी थी.इसी साल आई 'भूल-भुलैया' में विद्या बालन dissosiative identity disorder से पीड़ित थीं.२००५ में आई 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' में अनुपम खेर dementia नामक बीमारी से ग्रसित थे.

२०१० में रीलीज़ होने वाली गुजारिश में रितिक रोशन Paraplegia से ग्रस्त व्यक्ति का किरदार निभा रहे हैं.कुल मिलाके सवाल यह है की इन ख़ास बीमारियों की बोलीवुड को जरूरत क्यों है?पहली बात तो यह है कि साधारण भारतीय आम मुद्दों और बीमारियों को तो अपने ज़िन्दगी में रोज देखता है पर उसे तो तीन घंटों में सिल्वर स्क्रीन पर कल्पना की उड़ान भरनी है.इसी फैनटेसी को शांत करती हैं यह ख़ास बीमारियाँ.बोलीवुड की भाषा में समझें तो शाहरुख़ खान सर्दी,खांसी मलेरिया जैसी बीमारियों से जुड़ना न चाहकर,लवेरिया जैसी टेकनीकल बीमारी से पीड़ित कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. हाँ,एक बात और,यह बीमारियाँ अपने अस्तित्व में होने का प्रमाण भी हमारी फिल्मों के द्वारा ही देती हैं.वर्ना हम लोग़ तो अनेको बीमारियों को मात्र 'बड़े लोगों का फितूर' कहकर टाल देते हैं.इसका एक उदहारण है,तारे ज़मीन पर फिल्म में दर्शील को हुआ dyslexia,जो पढने लिखने में आने वाली एक मनोवैज्ञानिक समस्या है.पूरी अमेरिका की 5-17% आबादी इससे पीड़ित है.आम जनता तो इसे जानती ही नहीं.और अगर किसी बच्चे को दिक्कत होती भी है तो अधिकांशतः लोग़ इसे उसके पढने लिखने में दिल न लगने और नालायकी के प्रथम चरण के रूप में देखने लगते हैं।
लिंक-http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=1/19/2010&editioncode=1&pageno=16

Tuesday, January 5, 2010

उड़ियो,ना डरियो,कर मनमानी

भारत पाकिस्तान में एक बार सुलह हो सकती है पर दूबे जी और तिवारी जी का आपसी कलह कभी खत्म नही हो सकता.पर इनके बीच होने वाला कोई भी विवाद,घिसी पिटी देख लेने की धमकी और बोल बचन में ही निपट जाता है.वैसे भी,हिंसा किसी विवाद का हल नही.पर रोजाना की खिटखिट सुनने के नाते मैं अक्सर सोचता हूँ कि एक दिन दोनों आर पार का फैसला ही कर लें.लेकिन सिर्फ मेरे सोचने से क्या होता है?दूबे जी का आरोप है कि तिवारी जी,अपने गुर्गों से कहकर रोजाना उनके मेनगेट के सामने कूड़े का अम्बार लगवा देते हैं.तिवारी जी का भी यही मानना है कि उनके घर के चाहरदीवारी के अन्दर अक्सर मिलने वाले सब्जियों के छिलकों और प्लास्टिक रैपर्स के पीछे दूबे जी का ही हाथ है.ताज़ा प्रकरण में किसी ने छुट्टियों में गाँव गए दूबे जी के चाहरदिवारियों पर 'यहाँ पेशाब करना मना है' लिख दिया.लौट के आने तक उनके घर की दीवारों की हालत कुछ यूं थी कि उन्हें कुछ दिनों के लिए किराए के मकान में शिफ्ट होना पड़ा.

अब इसमें तिवारी जी का हाथ हो या ना हो,पर सवाल यह है कि कि हम वो काम ज्यादा क्यों करते हैं जो हमें मना किया जाता है?मसलन जहाँ वाहन खड़ा करने या पोस्टर चिपकाने की मनाही होती है,वहां ही इन नियमों की ज्यादा धज्जियाँ उड़ाइ जाती हैं. सरकार चीखती रह गयी कि बिना आइ एम आइ के मोबाइल इस्तेमाल करना सही नहीं पर जब तक उनपर पाबंदी न लगी,हम नही माने.शराब पीकर गाडी चलाना मना है,सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान मना है,atm में एक से ज्यादा लोगों का प्रवेश मना है.सड़कों और दीवारों पर पान मसाला खा कर थूकना मना है,ट्रेन के स्लीपर क्लास में जनरल का टिकट लेकर चलना मना है,ऑटो में ज्यादा सवारी भरना मना है,पाइरेटेड सीडी और डीवीडी का प्रयोग मना है,शादी में असलहों से फाइरिंग मना है,१८ साल से कम उम्र के लोगों का वयस्क फिल्मों हेतु सिनेमा हाल में प्रवेश मना है.मना तो बहुत कुछ है साहब,पर मानता कौन है?


हाल में ही अमेरिका यात्रा से लौटे मेरे गुरु जी का मानना है कि वहां लोगों को 'जुगाड़' यन्त्र के बारे में नही पता.शायद तभी वो नियमों के पालन के प्रति ज्यादा सजग हैं. वैसे भी हम भारतीय जुगाड़ के प्रति ज्यादा आशान्वित रहते है,शायद यही भावना हमें नियमों को ना मानने के लिए प्रेरित करती है.ट्रेफिक पुलिस के हत्थे चढ़े,तो बड़े साहब लोगों का जुगाड़.पासपोर्ट ,ड्राइविंग लाइसन्स नही बन रहा तो दलालों का जुगाड़.कहीं एडमीशन नही मिल रहा तो फर्जीवाड़े का जुगाड़.यानि जुगाड़ सर्वोपरि है.जुगाड़ पर हम कितने आधारित हैं,इसका एक्जाम्पल सुनिए.मेरे एक मित्र ने जब मुझे छोटे शहर छोड़ बड़ी जगहों पर करीयर हेतु प्रयासरत होने के लिए सुझाव दिया तो मैंने प्रयास करने से पूर्व ही जुगाड़ के बारे में पूछ लिया.मेरे एक अन्य मित्र कुछ दिनों के लिए गुजरात गए थे.चूंकि गुजरात में शराब पीना मना है,इसलिए उन्होंने मात्र कुछ ही किमी दूर केद्र शाषित प्रदेश दमन और दीव में जाकर जुगाड़ बना ही लिया.दिल्ली नॉएडा सीमा में रहने वाले बहुतेरे शराब प्रेमी कीमतों के फर्क को मिटाने के लिए रोजाना सीमा लांघते हैं.

एक सर्वे के अनुसार सिगरेट के पैकेटों पर छपी मौत की चेतावनी वास्तव में धूम्रपान करने वाले लोगों को इसके लिए और प्रेरित करती हैं।यानि स्प्रिंग को जितना दबाया जाएगा,उतना ही तेज रेएक्शन होगा.हाल में ही,उच्चतम न्यायालय ने भी केन्द्र सरकार के वेश्यावृत्ति के प्रति रुख पर टिप्पणी करते हुए पूछा था कि अगर सरकार इस पेशे पर पाबंदी नहीं लगा सकती तो इसे कानूनी मान्यता क्यों नहीं दे देती?कुल मिला के,हम मना की हुई चीजों को करने में ज्यादा फक्र महसूस करते हैं.शायद तभी राम गोपाल वर्मा की फिल्मों 'डरना मना है'और 'डरना जरूरी है' में डरना 'मना' है ज्यादा सफल हुई.यानि सिर्फ मना करना समस्या का हल नही.'बिन भये होए न प्रीति' में विश्वास करने वाला हमारा समाज कब खुद से अपने बारे में सोचना शुरू करेगा,यह देखना तो दिलचस्प होगा.फिलहाल तब तक मनमानी के इस दौर का आनंद लेने में ही भलाई है.