Tuesday, June 22, 2010

दूबे जी समाज में स्वयं के गिरते हुए प्रतिष्ठा से आहत हैं।मुझे लगा कि शायद उनके बेटे ने फिर तीसरी गली के लोकल कटरीना को छेड़ दिया है,पर मामला कुछ और ही था।पड़ताल की तो पता चला कि वो तो अपने फेसबुक अकाउन्ट के स्टे्टस अपडेट पर,कम होते कमेंट्स की संख्या से दुःखी है।कहने लगे कि इक ज़माना था कि जब उनके स्टे्टस अपडेट करते ही लोगों द्वारा बीसियों कमेंट्स की झड़ी लग जाती थी।आज तो बमुश्किल कोई ‘लाइक दिस’ का बटन दबा दे,वही बड़ी बात है।दूबे जी की मानें तो आज के ज़माने में सम्मान का प्रतीक गाड़ी,बंगला,बैंक बैलेंस नहीं बल्कि स्टे्टस अपडेट पर गिरते हुए कमेंट्स और ‘लाईक दिस’ करने वालों की संख्या है।सामाजिक रूतबे के इस नए फंडे को जानकर मैं तो चौंक ही गया।

तकनीकी समस्या का हल तकनीक से ही सम्भव है,सो मैंने उन्हें राय दी कि अगले बार से स्टेटस अपडेट करते समय वो गु्रप एस एम एस का प्रयोग करके सभी को कमेंट करने के लिए सूचित कर दिया करें। ऐसा लगा कि मानो मैने उन्हें लाल कपड़ा दिखा दिया हो।कहने लगे कि सम्मान मांग कर नही कमाया जाता।इससे अच्छा तो वो मरना यानि एकाउंट डिलीट करना पसंद करेंगे।उनके जख्मों पर नमक छिड़कने के लिए जब मैंने उनके धुर विरोधी तिवारी जी के स्टे्टस अपडेट की तारीफ की तो वो बिलबिला उठे।उनकी मानें तो तिवारी जी स्चयं के द्वारा ही बनायी हुई अनगिनत फेक आई डीज् से अपने स्टे्टस पर कमेंट करते रहते हैं।दूबे जी का तो यह भी मानना है कि वो दिन दूर नहीं जब कमेंट्स लिखना ‘पेड सर्विस‘ हो जाए।

इंटरनेट क्रांति के चलते अभिव्यक्ति का जबरदस्त माध्यम बनकर उभरा ब्लागिंग,अब सिकुड़कर माइक्रोब्लागिंग में बदल गया है।चंद लफ्जों में जमाने भर की बात कह देना,एक आर्ट बन गया है।गौर से देखा जाए तो ये स्टे्टस अपडेट्स अपनी बुद्धिजीविता,ज्ञान,दंभ,हैसियत आदि को दिखाने का एक ज़रिया बनकर उभरीं हैं।सोशल नेटवर्किंग के इस हथियार को कोई विवादों को जन्म देने के लिए प्रयोग कर रहा है((आईपीएल विवाद की शुरुआत ललित मोदी ने ट्व्टिर पर ही की थी)तो कोईअपने विरूद्व प्रचलित अफवाहों का खंडन करने के लिए (अमिताभ ने कई मुद्दों पर सफाई अपने ब्लाग के जरिए ही दी है)अपनों से ही बेगाने हो चले उनके छोटे भाई अमर सिंह भी अपने दिल का दर्द ब्लाग की ज़बानी ही व्यक्त करते हैं।फिर वो सचिन जैसे क्रिकेट खिलाड़ी हों या नरेन्द्र मोदी और नीतिश कुमार जैसे राजनीति के मझे हुए खिलाड़ी,शाहरूख जैसा बालीवुड का बादशाह हो या विजय माल्या जैसा उद्योगपति,कोई भी इसके मोह से अछूता नहीं।

फीडबैक के बिना कम्यूनीकेशन अधूरा है।शायद यही वजह है कि विचारों पर सहमति असहमति को जानने से लेकर शादी में पहने जाने वाली ड्रेस तक पर आम राय इन ब्लाग्स पर मांगी जा रही है।सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ आवाज उठाने का काम भी कर रहे हैं,ये ब्लाग और स्टेटस अपडेट्स।निरूपमा पाठक हत्याकांड के बाद बने अनेक ब्लाग्स,फोरम और लोगों के स्टेटस अपडेट इसके गवाह हैं।जब किसी धर्मगुरू ने कहा कि दुनिया में आने वाले प्राकृतिक आपदाओं की वजह महिलाओं के छोटे कपड़े पहनना है,तो सोशल साइट पर शुरू हुआ ‘बूब क्वेक’ जैसा अभियान सारी दुनिया के स्त्रियो के विरोघ का स्वर बना।एक शाम जब अचानक से दुनिया भर की महिलाओं के स्टेटस अपडेट में,रेड,ब्लू,ब्लैक आदि रंग लिखा दिखाई दिया तो पता चला कि यह ब्रेस्ट कैंसर के अवेयरनेस हेतु गुपचुप तरीके से चलाया जा रहा ब्रा कलर कैंपेन था।रूढ़ियों को तोड़ती और दुनिया को जोड़ती,,अभिव्यक्ति और आज़ादी का अगुआ बन चुके हैं,ये ब्लाग्स और स्टे्टस अपडेट्स।

कुछ दिन पहले सुना कि किसी ने बीसियों साल पहले खो चुके अपने परिवार को फेसबुक के जरिए ढं़ूढ निकाला। किसी को बहुत ही रेयर मिलने ब्लड गु्रप का खून,एक स्टे्टस अपडेट के ज़रिए बड़ी ही आसानी से उपलब्घ हो गया।ंअब तो सुना है कि लिख कर ब्लागिंग करने के दिन गए,‘बबली’ के जरिए अब बोल के ब्लागिंग होगी।आने वाले समय में हो सकता है कि सोच के भी ब्लागिंग करना सम्भव हो जाए।पर असल बात तो यह है कि इस सोशल नेटवर्किंग,ब्लागिंग और माइक्रोब्लागिंग ने बहुत कुछ बदला है और आने वाले समय में,और भी बहुत कुछ इनके ज़रिए बदलेगा,यह मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता।
२३ जून को i-next में प्रकाशित.http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=6/23/2010&editioncode=1&pageno=12#

Monday, May 24, 2010

rishta.com

दूबे जी के निशाने पर आजकल, मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर्स हैं. सुना है, उन्होंने घर के सारे मोबाइल कनेक्शन बंद कराके, पुन: सरकारी डेस्क फोन (की पैड पर ताला चाभी युक्त) की सुविधा ले ली है. करें भी क्यों ना..इस महीने उनके मोबाइल का बिल ही कुछ ऐसा आया है. उनके बड़े बेटे ने आईपीएल के दौरान उंगली क्रिकेट में सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. रही सही कसर छोटे सुपुत्र ने पूरी कर दी है. मैंने दूबे जी को समझाया कि बिल के बारे में एक बार कम्पनी में बात करके देखें. तकनीकी गड़बड़ संभव है. उन्होंने मुझे ऐसा घूरा मानो आखों से ही भस्म कर देंगे. कहने लगे कि यह सब वो पहले ही कर चुके हैं. यह तो उनके लाडले के यारी दोस्ती सेवाओं का नतीजा है.

वो बताने लगे कि यह सब सिर्फ एक मैसेज से शुरू हुआ. मैसेज था, हैलो, मैं बिपाशा, मुझसे दोस्ती करोगे? बस इसी मैसेज के बाद उनका सपूत बिपाशा के मोह जाल में फंस गया. ज्यादा गुस्सा तो इस बात का भी है कि उनके सुपुत्र की बिपाशा, बिपाशा बसु की जगह कानपुर की बिपाशा निकल गयी. अब उन्हें कौन समझाए कि चंद मासिक शुल्क और 3 रुपया मिनट की दर पर इससे ज्यादा और क्या मिलेगा? वैसे, आजकल मोबाइल पर मिलने वाली इस प्रकार की ऐड ऑन सेवाओं से आप बाखूबी परिचित होंगे. लेकिन इस तरह की सर्विसेज कई तरह के सवाल भी खड़े करती हैं.

तकनीकी क्रांति ने हमें सब कुछ दिया है. हमें सामाजिक तौर पर और सक्रिय बनाया. आज हम अपने दोस्तों से ज्यादा से ज्यादा बेहतर तरीके से कनेक्ट हैं. ऑरकुट, ट्विट्र, फेसबुक, हाई-फाई, लिंक्डइन, इन्ड्या रॉक्स, और न जाने क्या-क्या. यह सब हमारे बढ़ते सामाजिक दायरा के उदहारण हैं. फ्रेंड लिस्ट में 500 से ज्यादा दोस्त हैं, फिर भी दिल खुद को अकेला महसूस करता है. कहीं एक कमी सी है तभी तो हम बाज़ार में आने वाले इस दोस्त और दोस्ती के नित नए ऑफर्स को एक्सेप्ट कर रहे हैं. व्यावसायिक कंपनियां भी इसी जुगाड़ में लगी रहती हैं कि किस प्रकार इस रिश्ते को नए कलेवर और पैकेजिंग में उतारा जाए. जरूरत के मुताबिक इंटरनेट पर नॉर्मल फ्रेंड फाइंडर साईट्स से लेकर अडल्ट फ्रेंड फाइंडर साईट्स तक अवेलेबल हैं. बस, जेब से क्रेडिट कार्ड निकालिए और मन मुताबिक इस रिश्ते की खरीददारी कीजिये.
दोस्ती के भी आपको आजकल नए-नए रूप देखने मिलेंगे. नेट फ्रेंड्स, कॉलेज फ्रेंड्स, मोहल्ला फ्रेंड्स, चैट फ्रेंड्स, पेन फ्रेंड्स, एसएमएस फ्रेंड्स. तकनीकी क्रांति के पहले शायद दोस्ती के इतने फ्लेवर मौजूद नहीं थे. ज्यादा जरूरत बढ़ी तो फ्रेंडशिप क्लब बन गए. एक पुराने न्यूजपेपर में किसी फ्रेंडशिप क्लब के क्लासीफाइड ऐड की बानगी कुछ यूं थी. अपने शहर में हाई प्रोफाइल हाउस वाइफ और महिलाओं से दोस्ती करें और हजारों कमाएं. सौजन्य से ब्लैक ब्यूटी फ्रेंडशिप क्लब. निम्न मोबाइल पर संपर्क करें. अगर ये सोचें कि दोस्ती करने से हजारों की कमाई कैसे होगी, तो शायद आप सोचते ही रह जायेंगे. कुकुरमुत्ते की तरह उग आये इन फ्रेंडशिप क्लबों के नाम पर छपने वाले विज्ञापनों की असलियत क्या है, वो तो हमें गाहे-बगाहे समाचार पत्रों से पता चलता ही रहता है.

बहुत पहले साहित्यकार रामचंद्र शुक्ल का एक निबंध पढ़ा था, जिसमें मित्रता पर उन्होंने कहा था कि मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर जीवन की सफलता निर्भर करती है. पर आज के जमाने में हमने इस स्टेटमेंट को अपने तरीके से समझ लिया है. कैसे? हम उन्हें ही मित्र बनाते हैं, जिससे जीवन में सफलता के चांसेज बढ़ जायें. वक्त बदला तो मित्रता के मायने भी बदल गए. आज हमें दोस्त और दोस्ती भी थैला भर के चाहिए. एक दोस्त छूट गया तो क्या गम, बाकी तो हैं. समस्या तो यही है, गम क्यों नहीं है, क्या दोस्ती भी बाज़ार में मिलने वाले विभिन्न सर्विस प्रोवाइडर्स के सिम कार्ड की तरह हो गयी है, जिसमे सर्विस न पसंद आने पर दूसरा कार्ड लेने की सुविधा है. ज़ंजीर में प्राण साहब के लिए यारी ही ईमान थी और यार ही जिंदगी. पर यह मॉरल्स फिल्म के साथ ही पुराने पड़ गये. आजकल इश्क कमीना और कम्बख्त हो गया है. मुहब्बत, बेईमान मुहब्बत हो गयी है. दोस्ती भी दोस्ती न रही, दिल दोस्ती etc हो गयी है. क्या आपको नहीं लगता कि हमें दोस्त और दोस्ती के मतलब को समझने के लिए एक रेवोल्यूशन की जरूरत है, सोचियेगा जरूर.

Saturday, May 1, 2010

पागलपंथी भी जरूरी है

तिवारी जी को लोग़ आजकल 'स्टंटर' तिवारी के नाम से भी जानने लगे हैं.असली नाम तो शायद कुछ एक को ही पता हो.जीवन में ३० से ऊपर वसंत देख चुके तिवारी जी के पास कहने को तो डाकटरी की डिग्री भी है पर आजकल उनका मन प्रैकटीस में नही लगता.सब कुछ कुछ छोड़ छाड़ कर रेसिंग ट्रैक पर स्टंट करते दिखने लगे हैं.किसी तरह जुगाड़ करके मनपसंद बाईक खरीदी और चल पड़े जीवन में एडवेंचर की तलाश में.तलाश पूरी हुई कि नही,यह तो नही पता,पर आजकल वो बिस्तर पर हैं.किसी होलीवुड फिल्म के मोटर साईकल स्टंट को कॉपी करने के चक्कर में हाथ पैर तुड़ा कर बैठे हैं.उनके उत्साह में कोई कमी नही हुई है और वो ट्रैक पर वापसी की तैयारी में हैं
पर आपका सोचना भी लाजिमी है कि आज इस तरह का एक्साम्पल क्यों?पिछले कई महीनो से मै और मेरे मित्रों को जीवन नीरस सा लग रहा है.वही,सुबह से शाम, तक की नौकरी और उसके बाद दिल की दबी हसरतों का गला घोंटना.जब आत्म मंथन किया तो यही एक वाजिब वजह दिखी कि हमारे जीवन में 'पागलपंथी तत्त्व' की कुछ कमी आ गयी है.अब आप सोचेंगे की यह कौन सा एलेमेन्ट है?जी हाँ,एक ऐसा एलेमेन्ट हम सबके अन्दर होता है.एक शरारत भरी फीलिंग जिसे हम पूरा करके कुछ हटके महसूस करते हैं.पर कहीं न कहीं,हम लोक लाज और सामाजिक दबाव में उन हसरतों को दबा देते हैं.मसलन तिवारी जी के शौक का कनेकशन,उनके पेशे और परिवेश से कहीं भी मैच नही करता.पर उन्होंने दिमाग के जगह दिल की बात सुनी और वही कर रहे हैं जिसमे उनको ख़ुशी मिल रही है.

बरिस्ता और सी.सी.डी में तो रोजाना काफी पीते हैं पर कभी कभी सड़क के किनारे लगे ठेले पर भी चाय पीने का दिल करता है पर यह भी ख्याल आता है कि अगर सक्सेना जी,मल्होत्रा जी,खन्ना जी ने देख लिया आपके 'स्टैनदर्ड' के बारे में क्या सोचेंगे?कालेज लाईफ के दौरान सिनेमा हाल के सबसे आगे की सीट पर बैठ कर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन उचकाकर फिल्में देखना और सीटी मारना भी हम मिस करते होंगे.घर पर किसी छोटे बच्चे को जब आप वो विडियो गेम खेलता देखते होंगे जिसमे कभी आप खुद को मास्टर समझते थे तो दिल में यही आता होगा कि एक बाज़ी खेल कर देख ही लें पर हर इच्छा को हम यही सोच कर दबा लेते हैं कि लोग़ क्या कहेंगे?अपने से जयादा दूसरों के बारे में सोचकर हम रोजाना न जाने कितने खुशिओं का गला घोंटते हैं?

पर जिनके दिल पर दिमाग हावी हो जाता है वो फिर उसी की ही सुनते हैं और यह भूल जाते हैं कि ख़ुशी दूसरों के खुशिओं कि कीमत पर नही मिल सकतीं.मेरे स्कूल लाईफ में भी एक ऐसा लड़का था जिसका पागलपंथी एलेमेन्ट जरा हटके था जैसे दूसरों के सीट्स के नीचे पिन रख देना,लड़कियों के बालों में च्विंग गम चिपका देना आदि.आज भी बहुतेरे ऐसे लोग़ मिल जाते हैं जिन्हें दूसरों को परेशान करके एक मनोवैज्ञानिक ख़ुशी मिलती है.लड़कियों और महिलाओं पर बेवजह छींटा कशी और कमेंट्स करने वाले लोगो को जो भी ख़ुशी मिलती हो पर वो भी उनके पागलपंथी एलेमेन्ट का बिगड़ा हुआ रूप है.हालांकि यह कहना सरासर गलत है कि वो ऐसा अपनी दिल की आवाज सुनकर करते हैं.

इसलिए यह ख्याल रखना है कि अगले बार अपने पागलपंथी को शांत करने के चक्कर में दूसरों का मानसिक उत्पीडन न हो.हाँ,एक बात और,थोडा सा प्रीकाशन भी रखना है.वरना,राए साहब की तरह गर्ल फ्रेंड को बाईक पर बिठाकर जेम्स बोंड की तरह बेतहाशा गाडी चलाने के चक्कर में में हाथ पैर न तुडवाना पड़े.गर्मी की छुटियाँ आ रही हैं.मौका भी है और दस्तूर भी.ज़िन्दगी के रेगुलर पैटर्न से कुछ वक़्त निकालकर लग जाईए,अपने पागलपंथी तत्त्व की खोज में और हाँ,लोगों की परवाह करना छोड़ दीजिये क्योंकि लोगों का काम ही है कहना....
३० अप्रैल को i-next में प्रकाशित..http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=4/30/2010&editioncode=1&pageno=16

Thursday, March 18, 2010

बूँद बूँद का सपना..

गर्मियों के आते ही दूबे जी का एकसूत्री कार्यक्रम है.अपने सो काल्ड बगिया के गिने चुने चार पौधों को पानी देते हुए पूरे घर के फर्शों को पानी से धुलना.भरसक कोशिश करता हूँ कि मैं उनके 'वैचारिक सुनामी' का शिकार ना बनू पर आमना सामना to हो ही जाता है,भई,पडोसी जो हैं.अटैक इस दी बेस्ट डीफेंस,सो मै उनके फर्श धुलाई कार्यक्रम को आड़े हाथ लेते हुए कहने लगा कि जब दुनिया २२ मार्च को विश्व जल दिवस मनाने के प्रति गंभीर है तो आप काहे यूं पानी की फिजूल खर्ची में तत्पर हैं. दूबे जी ऐसे बिफरे मानो उन्हें मैंने लाल कपडा दिखा दिया हो.कहने लगे कि जब जूबी डूबी गाने में करीना आरटीफीसीयल बारिश में भीगते दिखती हैं तब तो हम युवा चटखारे लेकर देखते हैं और पानी के फिजूलखर्ची के बारे में नहीं सोचते.मैंने उन्हें समझाया कि फ़िल्मी कल्पना बारिश और पानी के बिना अधूरी है.कहने लगे कि तेल लेने गयी ऐसी कल्पना.पूरी उम्र बीत गयी फिल्मों में यह देखते देखते कि बरसाती रातों में अक्सर भीगी भागी हेरोइने आसरा लेने नायक का दरवाजा खटखटाती हैं.न जाने कितने सावन भादो बीत गए.पर घर के चौखट पर सीवर चोकिंग के फलस्वरूप इकठ्ठा कचरे के अलावा किसी और ने दस्तक नहीं दी.

बात को घुमाते हुए मैंने उन्हें बताया कि इस साल २०१० वर्ल्ड वाटर डे पर एक विश्व्यापी एवायरनेस कार्यक्रम के तहत हजारो वालेंटीयरस,टॉयलेट के लिए एक सांकेतिक क्यू का निर्माण करके लोगों का ध्यान आकर्षित करेंगे.सुलगे हुए दूबे जी के अनुसार इस तरह के टॉयलेट क्यू का बनना तो हमारे देश में हर सुबह का आम नज़ारा है.इससे कौन सा पानी के प्रति एवायरनेस पैदा हो जायेगा.दुनिया की नज़र पांड़े जी के अहाते में लगे दर्ज़नो यूकीलिप्टस पेड़ों पर नहीं जाते जो प्रतिदिन अपने से दुगने व्यक्तियों का पानी धरती से सोखते रहते हैं.बात तो उनकी सही थी पर सार्वजिक परिचर्चा में निजी खुन्नसों को दूर रखना दूबे जी को कौन सम्झाए.मैंने उन्हें समझाया की संसार में अनेको ऐसे स्थान हैं जहाँ टॉयलेट जैसे मूलभूत सुबिधाओं का भी टोटा है.ऐसे में यह क्यू इवेंट मूलभूत जरूरतों के लिए आम इंसान के पहुँच का प्रतीक है.यह उन 2.5 billion लोगों के लिए आवाज उठाने की कोशिश है जिनकी साफ़ पेयजल तक पहुँच ही संभव नहीं है.

वैसे भी हम उस देश के वासी हैं जहाँ एक ओर तो गंगा के पानी को अमृत का दर्ज़ा दिया जाता है वहीँ दूसरी ओर कुम्भ जैसे आयोजनों में फूल,गजरे,अगरबत्ती,आदि से गंगा को प्रदूषित करने के अलावा लोग सुबह सुबह चुपके से तट पर ही दैनिक क्रियाओं से भी बाज नहीं आते.हम इसलिए भी ख़ास हैं क्योंकि हम बाथ टब में नहाते,खुले टैप पर ब्रुश करते,गाड़ियों को धोते रोजाना लाखों लीटर पानी वेस्ट करते हैं और जरूरत पड़ने पर पानी की बोतल खरीदने से लेकर हजारों रुपए के वाटर सैनीटेशन भी करते हैं.एक आंकड़े के अनुसार,पानी जनित रोगों से विश्व में हर वर्ष २२ लाख लोगों की मौत हो जाती है। शायद इसी वजह से इस साल वर्ल्ड वाटर डे की थीम है-clean water for a healthy world. जहाँ तक भारत की बात है,करीब 15 लाख बच्चों की प्रतिवर्ष तो सिर्फ डायरिया के कारण मृत्यु हो जाती है।वैसे,एक आंकड़ा यह भी है कि भारत जल की गुणवत्ता के मामले में 122 देशों में से 120वें स्थान पर आता है।

प्यासे को पानी पिलाकर पुण्य कमाने वाले देश में आज पानी के लिए हत्याएं हो रही हैं.याद आता है वो बचपन जब स्कूल जाते समय आज की तरह वाटर बोतल ले जाने की कभी जरूरत नहीं पड़ी.स्कूल के पीछे कुएं पर लगा हैंडपंप हम सबकी प्यास बुझाने के लिए काफी था.वो अनगिनत तालाब अब सुख चुके हैं जिनका किनारा कभी हमारा प्ले ग्राउंड हुआ करता था.हैंडपंप के पानी से भरे मिटटी के मटके ने कब रूप बदल कर कैंडल वाले फिल्टर में बदल गया पता ही नहीं चला.शायद अब वो समय आ गया है कि जब हम पानी कि कीमत को समझें वरना वो दिन दूर नहीं जब नहाना,धोना,सुखाना,भीगना,भिगाना,जैसे शब्द सिर्फ डिक्शनरी में ही रह जायें और अफ़सोस में निकला आखों के पानी की भी कीमत लगने लगे.
(22 मार्च को i-next में प्रकाशित)link-http://www.inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=3/22/2010&editioncode=1&pageno=12

Wednesday, March 3, 2010

तस्वीर के उस पार

दूबे जी आजकल घर से ज्यादा बेवफा बार पर दिखाई देते हैं. जी नहीं, यह किसी शराब के ठेके का नाम नहीं है. यह उनके द्वारा बनायी गयी एक सोशल नेटवर्किंग कम्युनिटी है, जिस पर आजकल वो ताबड़तोड़ प्रेम विरोधी ब्लॉग्स पोस्ट कर रहे हैं. करें भी क्यों ना, इसी वैलेंटाइन्स डे पर उनका दिल जो टूटा है. टूटे दिल की भड़ास निकलने के लिए दूबे जी ने यह तरीका क्यों अपनाया, यह पूछते ही उन्होंने मुझे तुरंत डस लिया. कहने लगे कि आजकल यूएसबी प्लगइन की तरह आसान हो चुके रिश्तों और संबंधों की जोड़-तोड़ से अच्छा तो उनके स्टफी का प्यार है, जो बिना किसी शर्त के है. वो चाहे उसे कितना भी डांट-डपट लें पर उसकी ईमानदारी और निश्छल प्रेम एक यूनिवर्सल कॉन्सटेंट की तरह बना रहता है.
स्टफी उनके द्वारा पाला गया नया नया डॉगी है. मोहब्बत में दिल टूटा तो कुत्ता पाल लिया, इस फलसफे के पीछे अब दूबे जी की जो भी मंशा हो पर छेड़ने के लिए मैंने उनसे पूछ ही लिया कि उनके अनुसार आखिर प्यार है क्या? कहने लगे कि प्यार वो है जो क्लास रूम, ऑफिस आदि से शुरू होकर पार्को, कैफेटेरिया के आसपास, मल्टीप्लेक्सेस से गुजरते हुए खत्म किसी दोस्त के खाली पड़े फ्लैट पर होता है. एक जमाना था कि जब प्यार कॉलेज लाइब्रेरी के खामोश माहौल में भी पनपता था. पर प्यार ने कब लाइब्रेरी के सार्वजनिक माहौल से निकलकर साइबर कैफे के तंग दायरे को अपना लिया, पता ही नहीं चला. मैंने विरोध किया कि वो सिर्फ अपने निजी अनुभव पर लव आजकल को नहीं तौल सकते पर ऐसा बोलते ही उन्होंने तुरंत किसी अखबार में प्रकाशित एक सर्वे का आंकड़ा मेरे ऊपर उगल दिया.
इसके अनुसार वैलेंटाइन-डे के मौके पर अब चॉकलेट्स, फूलों, सॉफ्ट टॉय से कहीं ज्यादा कंडोम्स और वियाग्रा की बिक्री बढ़ जाती है. दिलजले दूबे जी से और बहस करना बेकार था. पर मैं भी सोचने लगा कि क्या वाकई लव आजकल बदल गया है? लव जैसे भारी-भरकम विषय पर कोई बात कहने के लिए फिलहाल मेरी उम्र और तजुर्बा दोनों ही कम हैं, पर एक बात तो पक्की है कि समाज में हर ट्रेंड और रिश्तों का स्वरूप बदल रहा है और लव भी उससे अछूता नहीं है. भले ही आज प्यार में भावनाएं पत्थरों में लिपटकर डेस्टिनेशन ए मोहब्बत तक पहुंचने के बजाय एसएमएस, ईमेल्स के जरिये जा रहा हो पर प्यार जैसा भी है, उसे उसी स्वरूप में हमें स्वीकार करना होगा.
वैसे हमारे यहां रीति को कुरीति बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है. समाज की जड़ों में गहराई तक बस चुका डाउरी सिस्टम इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है. गार्जियन का एक्सप्रेशन ऑफ केयर कब कंप्लशन बन गया पता ही नहीं चला. शादियों में खुशी में छुड़ाये जाने वाले पटाखों ने भी अपना स्वरूप बदलकर असलहों से फायरिंग का रूप ले लिया. प्रतिवर्ष कितने ही इस फिजूल के पॉम्प एंड शो में अपनी जान गंवा देते हैं. वैसे बदलाव हमेशा नकारात्मक ही नहीं होते. क्रिकेट का भी स्वरूप बदला तो रोमांच और मनोरंजन से भरपूर ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट का उदय हुआ. पर इसके इतना पॉपुलर होने के बाद भी हम नहीं भूले कि क्रिकेट का असली स्वरूप टेस्ट क्रिकेट ही है. दसवीं और बारहवीं बोर्ड एग्जाम में अब ग्रेडिंग सिस्टम लाने की तैयारी है. शिक्षा का भी स्वरूप बदला है पर हम नहीं भूले हैं कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान है. किसी के लिए बोझ बनना नहीं.
इसी कड़ी में हमने होली को भी नहीं छोड़ा। अभी-अभी होली बीती है। प्रशासन का साफ आदेश था कि जो होली नहीं खेलना चाहते, उन्हें जबरदस्ती रंग ना लगाया जाए. फिर भी हम नहीं माने. फागुन की मस्ती में रंगों के अलावा कीचड़, पेंट, वार्निश, पोटाश और न जाने कौन-कौन से सबस्टीट्यूट का प्रयोग जमकर हुआ. बुरा न मानो होली है की टैगलाइन प्रयोग जमकर हुआ. विरोधियों के कपड़े होली के नाम पर फटकर शहीद हो गए. सड़कों पर शराबियों की धींगामुश्ती आम ऩजारे की तरह दिखाई दी. अब होली की दिन शराब की बढ़ती एक्सेप्टेंस देखकर तो यही लगता है कि शायद एक दिन होली को सरकार मद्यपान दिवस न घोषित कर दे. कभी-कभी ऐसा होता है कि बड़े-बड़े मुद्दों पर बात करते-करते छोटे मसले अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं. उम्मीद है, अब हम इस तरह के नजरअंदाजी से बचने की एक कोशिश तो जरूर करेंगे. यानी तस्वीर में जो रंग हैं, उन्हें उनकी ओरिजनैलिटी के साथ एक्सेप्ट करने में ही भलाई है.

Thursday, January 28, 2010

READY FOR THE CHANGE?

सलमान खान और दूबे जी में क्या समानता है?जी नहीं,दोनों के फीजिक में ज़मीन आसमान का अंतर है.समानता यह है कि दोनों ही शाहरुख़ खान की चर्चा करना भी पसंद नहीं करते.वो हर बात पर शाहरुख़ का विरोध क्यों करते हैं,यह तो नहीं पता पर दूबे जी अक्सर बताते हैं कि फौजी सीरीयल पहले उन्हें ही ऑफर हुई थी पर किंग खान ने उनका पत्ता काट दिया.यह झूठ हो या सच पर उन्हें आजकल शारुख खान के विरोध में नया मसाला मिल गया है.'मिले सुर मेरा तुम्हारा' के नए वर्सन में उन्हें शाहरुख़ के दिखने पर भी आपत्ति है.उनको लगता है कि यहाँ भी वो उनके देवतुल्य अमिताभ बच्चन की बराबरी कर रहे हैं.तभी गाने की शुरुआत अमिताभ से होती है और खत्म शहरुख से।

दूबे जी को शाहरुख़ का अमिताभ से बराबरी करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता.कहने लगे कि बड़े बुजुर्ग से क्या मुकाबला करना.बच्चनवा के उम्र में देख्नेगे कि शाहरुख़ कितना रोल पायेंगे.गलती दूबे जी कि नहीं,मीडिया ने भी शाहरुख़ बच्चन शीतयुद्ध को ऐसे परोसा है कि हर किसी को इन दोनों के बीच न दिखने वाली यह खाई कभी पटते नहीं दिखाई देती.,दूबे जी को तो नया 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' भी नहीं पसंद.उन्हें पुराना वाला ही अच्छा लगता है.वो कुछ मोहब्बतें फिल्म के नारायण शंकर वाले चरित्र की तरह हैं जिसे परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं।
अब इस गाने का चाहे जो भी संस्करण अच्छा हो,पर परिवर्तन और नए चीजों के विरोध की मानसिकता सिर्फ दूबे जी की नहीं,कमोवेश समाज के एक बड़े भाग की है.चलिए इसका एक निजी एक्साम्पल देता हूँ.भारत में जब मोबाइल सेवाएँ शुरू हुईं तो मैं भी उसके प्रारंभिक कन्जुमर्स में से एक था.हालांकि सेवाएँ बहुत महंगी थी सो जाहिर है कि यह सुविधा डैड्स गिफ्ट ही थी पर कुछ लोगों हेतु मेरा छात्र जीवन में मोबाइल फ़ोन प्रयोग करना मेरे नालायकी का प्रतीक बन गया.आज देखिये.हालात् कितन बदल गए हैं.रोटी,कपडा मकान के साथ मोबाइल भी एक दैनिक जरूरत बन गयी है. इसके बिना तो सामाजिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
हाल ही में एक अत्यंत प्रसिद्ध महिला आधारित मैगजीन गृहलक्ष्मी ने स्पेशल लान्जरी गाईड लांच की है.घरेलु महिलाओं में अत्यंत प्रचलित इस मैगजीन का यह नया तेवर अचानक से कुछ लोगों के आँखों में चुभ सकता है.पर इस तरह का बदलाव इस बात का घोतक है कि हम अब परिवर्तनों को स्वीकार करने में सक्षम हैं.अब हम उन बातों पर खुलकर बात कर सकते हैं जो कभी सिर्फ एक महिला घर की बड़ी महिलाओं से ही करना पसंद करतीं थीं.इसका एक और उदहारण कई प्रसिद्ध रास्ट्रीय पत्रिकाओं द्वारा कराये जा रहे सेक्स सर्वें हैं.सेक्स को लेकर जो हमारी रुढिवादिता है,वो किसी से छुपी नहीं पर इन सर्वेस में लोगों की बढती भागेदारी यह बताती हैं कि बंदिशें टूट रहीं हैं।विज्ञापनों की भी भाषा बदल गयी है.'उन दिनों की बात' बदलकर अब 'हैव अ हैप्पी पीरीयड ' हो गयी है.याद है जब दुलारा फिल्म का 'मेरी पैंट भी सेक्सी' गीत में 'सेक्सी' सेंसर के दवाब में 'फैनसी' हो गया था.आजकल अखबारों के हेड लाइन्स से लेकर सामान्य बोलचाल तक में यह शब्द स्वीकार्य हो चुका है.

वैसे हम पूरी तरह से भी नहीं बदले हैं.यह वही देश है जहाँ रोमांटिक फिल्मों को सपरिवार देखने वाले लोगों द्वारा प्रेम संबंधों में पड़े जोड़ों को मौत के घाट उतर दिया जाता है.जल्द ही वैलेंटाइन डे भी आने वाला है.संस्कृति और सभ्यता के नाम पर फिर राजनीति होगी.प्रेमी जोड़े सरेआम बे इज्ज़त किये जायेंगे.मौके पर घिर गयी लड़कियों से छेड़ छाड़ होगी.मीडिया के कैमरों में यह सब कैद होकर हमें भी दिखेगा.पुलिस फिर सख्ती दिखाएगी, पर यह चीजें रुकेंगी नहीं. मोहब्बतें में तो नारायण शंकर ने भी आखिर में बदलाव को स्वीकार कर लिया था पर समाज में फैले इन अनगिनत नारायण शंकरो को बदलने के लिए भी एक राज आर्यन मल्होत्रा की जरूरत है,क्या आपको नहीं लगता?
3 फरवरी को i-next में प्रकाशित...http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=2/3/2010&editioncode=1&pageno=16

Wednesday, January 20, 2010

यह मर्ज़ कुछ खास है..

फिल्में समाज का दर्पण है,आजकल दूबे जी इस बात को नहीं मानते .कुछ हफ़्तों पहले उन्होंने अमिताभ बच्चन की 'पा' देखी है.बताने लगे कि फिल्म तो ठीक है पर उसे देखने के बाद से उनके दिल में आजकल के डाईरेकटरों के प्रति खासी नाराज़गी पैदा हो गयी है.'नाराज होकर भी क्या बिगाड़ लोगे' की भावना दिल में रखकर जब मैंने इसके बारे में पूछा तो बताने लगे कि यह आजकल के डाईरेक्टर ऐसी ऐसी बीमारियों पर फिल्में बनाते हैं जो कभी सुनी ही नहीं.उनका इशारा जल्द आ रही 'माई नाम इस खान' में शाहरुख़ की बीमारी के तरफ था.कहने लगे कि इससे अच्छा तो उनका दौर था जब हीरो कैनसर,दमा,ब्रेन टूमर से आगे की बीमारियों से ग्रसित होने के बारे में सोच भी नहीं पाता था.मैंने समझाया कि हर युग में अलग प्रकार की बीमारियों का फॉर्मेट होता हैं .इन आउटडेटेड बीमारियों से तो आजकल हर कोई ग्रसित है.इन्हें देखने कौन हॉल में जाने वाला है?


बहस छिड़ चुकी थी.दूबे जी कहने लगे कि जब आजकल रेअलिस्टिक फिल्में ज्यादा बन रहीं हैं तो बीमारियाँ भी रेअलिस्टिक होनी चाहिए.मधुमेह,बवासीर,रतौंधी,मोतियाबिंद,दाद-खाज,जैसी आम जनता की बीमारियों से जुडी समस्याओं को,फिल्मों के द्वारा क्यों नहीं सामने लाया जाता?उनके द्वारा गिनाये गए इन बीमारियों की लिस्ट में से अधिकतर से वो ग्रसित हैं सो मैंने बहस करके उनके घावों पर नमक छिड़कना सही नहीं समझा.बात आई गयी हो गयी पर इस बहस ने एक नए सवाल को जन्म दिया.क्या वाकई बॉलीवुड उन बीमारियों को ज्यादा तरजीह देता है जो बहुत कम या रेयर हैं.गजनी के आमिर खान को anterograde amnesia नामक बीमारी है,तो पा में अमिताभ बच्चन प्रोज़ेरिया नामक बीमारी से पीड़ित हैं.माई नाम इस खान में शाहरुख़ खान को Asperger syndrome(autism)परेशान कर रहा है,तो 'ब्लैक' में भी अमिताभ बच्हन Alzheimer's disease ढो रहे होते हैं.सारी बीमारियाँ लाखों में एक को होती है.
वैसे इन ख़ास बीमारियों और बॉलीवुड का पुराना नाता है.'आनंद' के राजेश खन्ना को कौन भुला सकता है जिसको 'लिम्फोसार्कोमा आफ इन्टेस्ताईन' था.आज भी हृषिकेश मुखर्जी की यह अप्रतिम कृति हमारे आँखों में आंसू ला देता है.वैसे काका ने 1969 में एक मूवी 'ख़ामोशी' भी की थी जिसमे वो acute mania से ग्रसित थे.अमिताभ बच्चन की हालिया 'पा'को छोड़ भी दें तो उन्होंने अनेक ख़ास बीमारी ग्रस्त किरदार निभाए हैं.१९७४ में उन्होंने 'मजबूर' की थी जिसमे वो terminal brain tumor से पीड़ित थे.ब्लैक का उनका किरदार तो भूला ही नहीं जा सकता.अजय देवगन ने भी 'दीवानगी' में split personality नामक चिड़िया के बारे में बताया.हाल फिलहाल के फिल्मों की बात करें तो २००७ में रीलीज़ 'तारे ज़मीन पर' एक ऐसे बच्चे की भावनात्मक कहानी थी जिसे dyslexia नामक बीमारी थी.इसी साल आई 'भूल-भुलैया' में विद्या बालन dissosiative identity disorder से पीड़ित थीं.२००५ में आई 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' में अनुपम खेर dementia नामक बीमारी से ग्रसित थे.

२०१० में रीलीज़ होने वाली गुजारिश में रितिक रोशन Paraplegia से ग्रस्त व्यक्ति का किरदार निभा रहे हैं.कुल मिलाके सवाल यह है की इन ख़ास बीमारियों की बोलीवुड को जरूरत क्यों है?पहली बात तो यह है कि साधारण भारतीय आम मुद्दों और बीमारियों को तो अपने ज़िन्दगी में रोज देखता है पर उसे तो तीन घंटों में सिल्वर स्क्रीन पर कल्पना की उड़ान भरनी है.इसी फैनटेसी को शांत करती हैं यह ख़ास बीमारियाँ.बोलीवुड की भाषा में समझें तो शाहरुख़ खान सर्दी,खांसी मलेरिया जैसी बीमारियों से जुड़ना न चाहकर,लवेरिया जैसी टेकनीकल बीमारी से पीड़ित कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. हाँ,एक बात और,यह बीमारियाँ अपने अस्तित्व में होने का प्रमाण भी हमारी फिल्मों के द्वारा ही देती हैं.वर्ना हम लोग़ तो अनेको बीमारियों को मात्र 'बड़े लोगों का फितूर' कहकर टाल देते हैं.इसका एक उदहारण है,तारे ज़मीन पर फिल्म में दर्शील को हुआ dyslexia,जो पढने लिखने में आने वाली एक मनोवैज्ञानिक समस्या है.पूरी अमेरिका की 5-17% आबादी इससे पीड़ित है.आम जनता तो इसे जानती ही नहीं.और अगर किसी बच्चे को दिक्कत होती भी है तो अधिकांशतः लोग़ इसे उसके पढने लिखने में दिल न लगने और नालायकी के प्रथम चरण के रूप में देखने लगते हैं।
लिंक-http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=1/19/2010&editioncode=1&pageno=16