Thursday, March 18, 2010
बूँद बूँद का सपना..
गर्मियों के आते ही दूबे जी का एकसूत्री कार्यक्रम है.अपने सो काल्ड बगिया के गिने चुने चार पौधों को पानी देते हुए पूरे घर के फर्शों को पानी से धुलना.भरसक कोशिश करता हूँ कि मैं उनके 'वैचारिक सुनामी' का शिकार ना बनू पर आमना सामना to हो ही जाता है,भई,पडोसी जो हैं.अटैक इस दी बेस्ट डीफेंस,सो मै उनके फर्श धुलाई कार्यक्रम को आड़े हाथ लेते हुए कहने लगा कि जब दुनिया २२ मार्च को विश्व जल दिवस मनाने के प्रति गंभीर है तो आप काहे यूं पानी की फिजूल खर्ची में तत्पर हैं. दूबे जी ऐसे बिफरे मानो उन्हें मैंने लाल कपडा दिखा दिया हो.कहने लगे कि जब जूबी डूबी गाने में करीना आरटीफीसीयल बारिश में भीगते दिखती हैं तब तो हम युवा चटखारे लेकर देखते हैं और पानी के फिजूलखर्ची के बारे में नहीं सोचते.मैंने उन्हें समझाया कि फ़िल्मी कल्पना बारिश और पानी के बिना अधूरी है.कहने लगे कि तेल लेने गयी ऐसी कल्पना.पूरी उम्र बीत गयी फिल्मों में यह देखते देखते कि बरसाती रातों में अक्सर भीगी भागी हेरोइने आसरा लेने नायक का दरवाजा खटखटाती हैं.न जाने कितने सावन भादो बीत गए.पर घर के चौखट पर सीवर चोकिंग के फलस्वरूप इकठ्ठा कचरे के अलावा किसी और ने दस्तक नहीं दी.
बात को घुमाते हुए मैंने उन्हें बताया कि इस साल २०१० वर्ल्ड वाटर डे पर एक विश्व्यापी एवायरनेस कार्यक्रम के तहत हजारो वालेंटीयरस,टॉयलेट के लिए एक सांकेतिक क्यू का निर्माण करके लोगों का ध्यान आकर्षित करेंगे.सुलगे हुए दूबे जी के अनुसार इस तरह के टॉयलेट क्यू का बनना तो हमारे देश में हर सुबह का आम नज़ारा है.इससे कौन सा पानी के प्रति एवायरनेस पैदा हो जायेगा.दुनिया की नज़र पांड़े जी के अहाते में लगे दर्ज़नो यूकीलिप्टस पेड़ों पर नहीं जाते जो प्रतिदिन अपने से दुगने व्यक्तियों का पानी धरती से सोखते रहते हैं.बात तो उनकी सही थी पर सार्वजिक परिचर्चा में निजी खुन्नसों को दूर रखना दूबे जी को कौन सम्झाए.मैंने उन्हें समझाया की संसार में अनेको ऐसे स्थान हैं जहाँ टॉयलेट जैसे मूलभूत सुबिधाओं का भी टोटा है.ऐसे में यह क्यू इवेंट मूलभूत जरूरतों के लिए आम इंसान के पहुँच का प्रतीक है.यह उन 2.5 billion लोगों के लिए आवाज उठाने की कोशिश है जिनकी साफ़ पेयजल तक पहुँच ही संभव नहीं है.
वैसे भी हम उस देश के वासी हैं जहाँ एक ओर तो गंगा के पानी को अमृत का दर्ज़ा दिया जाता है वहीँ दूसरी ओर कुम्भ जैसे आयोजनों में फूल,गजरे,अगरबत्ती,आदि से गंगा को प्रदूषित करने के अलावा लोग सुबह सुबह चुपके से तट पर ही दैनिक क्रियाओं से भी बाज नहीं आते.हम इसलिए भी ख़ास हैं क्योंकि हम बाथ टब में नहाते,खुले टैप पर ब्रुश करते,गाड़ियों को धोते रोजाना लाखों लीटर पानी वेस्ट करते हैं और जरूरत पड़ने पर पानी की बोतल खरीदने से लेकर हजारों रुपए के वाटर सैनीटेशन भी करते हैं.एक आंकड़े के अनुसार,पानी जनित रोगों से विश्व में हर वर्ष २२ लाख लोगों की मौत हो जाती है। शायद इसी वजह से इस साल वर्ल्ड वाटर डे की थीम है-clean water for a healthy world. जहाँ तक भारत की बात है,करीब 15 लाख बच्चों की प्रतिवर्ष तो सिर्फ डायरिया के कारण मृत्यु हो जाती है।वैसे,एक आंकड़ा यह भी है कि भारत जल की गुणवत्ता के मामले में 122 देशों में से 120वें स्थान पर आता है।
प्यासे को पानी पिलाकर पुण्य कमाने वाले देश में आज पानी के लिए हत्याएं हो रही हैं.याद आता है वो बचपन जब स्कूल जाते समय आज की तरह वाटर बोतल ले जाने की कभी जरूरत नहीं पड़ी.स्कूल के पीछे कुएं पर लगा हैंडपंप हम सबकी प्यास बुझाने के लिए काफी था.वो अनगिनत तालाब अब सुख चुके हैं जिनका किनारा कभी हमारा प्ले ग्राउंड हुआ करता था.हैंडपंप के पानी से भरे मिटटी के मटके ने कब रूप बदल कर कैंडल वाले फिल्टर में बदल गया पता ही नहीं चला.शायद अब वो समय आ गया है कि जब हम पानी कि कीमत को समझें वरना वो दिन दूर नहीं जब नहाना,धोना,सुखाना,भीगना,भिगाना,जैसे शब्द सिर्फ डिक्शनरी में ही रह जायें और अफ़सोस में निकला आखों के पानी की भी कीमत लगने लगे.
(22 मार्च को i-next में प्रकाशित)link-http://www.inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=3/22/2010&editioncode=1&pageno=12
Posted by अभिषेक at 3:24 AM 1 comments
Wednesday, March 3, 2010
तस्वीर के उस पार
दूबे जी आजकल घर से ज्यादा बेवफा बार पर दिखाई देते हैं. जी नहीं, यह किसी शराब के ठेके का नाम नहीं है. यह उनके द्वारा बनायी गयी एक सोशल नेटवर्किंग कम्युनिटी है, जिस पर आजकल वो ताबड़तोड़ प्रेम विरोधी ब्लॉग्स पोस्ट कर रहे हैं. करें भी क्यों ना, इसी वैलेंटाइन्स डे पर उनका दिल जो टूटा है. टूटे दिल की भड़ास निकलने के लिए दूबे जी ने यह तरीका क्यों अपनाया, यह पूछते ही उन्होंने मुझे तुरंत डस लिया. कहने लगे कि आजकल यूएसबी प्लगइन की तरह आसान हो चुके रिश्तों और संबंधों की जोड़-तोड़ से अच्छा तो उनके स्टफी का प्यार है, जो बिना किसी शर्त के है. वो चाहे उसे कितना भी डांट-डपट लें पर उसकी ईमानदारी और निश्छल प्रेम एक यूनिवर्सल कॉन्सटेंट की तरह बना रहता है.
स्टफी उनके द्वारा पाला गया नया नया डॉगी है. मोहब्बत में दिल टूटा तो कुत्ता पाल लिया, इस फलसफे के पीछे अब दूबे जी की जो भी मंशा हो पर छेड़ने के लिए मैंने उनसे पूछ ही लिया कि उनके अनुसार आखिर प्यार है क्या? कहने लगे कि प्यार वो है जो क्लास रूम, ऑफिस आदि से शुरू होकर पार्को, कैफेटेरिया के आसपास, मल्टीप्लेक्सेस से गुजरते हुए खत्म किसी दोस्त के खाली पड़े फ्लैट पर होता है. एक जमाना था कि जब प्यार कॉलेज लाइब्रेरी के खामोश माहौल में भी पनपता था. पर प्यार ने कब लाइब्रेरी के सार्वजनिक माहौल से निकलकर साइबर कैफे के तंग दायरे को अपना लिया, पता ही नहीं चला. मैंने विरोध किया कि वो सिर्फ अपने निजी अनुभव पर लव आजकल को नहीं तौल सकते पर ऐसा बोलते ही उन्होंने तुरंत किसी अखबार में प्रकाशित एक सर्वे का आंकड़ा मेरे ऊपर उगल दिया.
इसके अनुसार वैलेंटाइन-डे के मौके पर अब चॉकलेट्स, फूलों, सॉफ्ट टॉय से कहीं ज्यादा कंडोम्स और वियाग्रा की बिक्री बढ़ जाती है. दिलजले दूबे जी से और बहस करना बेकार था. पर मैं भी सोचने लगा कि क्या वाकई लव आजकल बदल गया है? लव जैसे भारी-भरकम विषय पर कोई बात कहने के लिए फिलहाल मेरी उम्र और तजुर्बा दोनों ही कम हैं, पर एक बात तो पक्की है कि समाज में हर ट्रेंड और रिश्तों का स्वरूप बदल रहा है और लव भी उससे अछूता नहीं है. भले ही आज प्यार में भावनाएं पत्थरों में लिपटकर डेस्टिनेशन ए मोहब्बत तक पहुंचने के बजाय एसएमएस, ईमेल्स के जरिये जा रहा हो पर प्यार जैसा भी है, उसे उसी स्वरूप में हमें स्वीकार करना होगा.
वैसे हमारे यहां रीति को कुरीति बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है. समाज की जड़ों में गहराई तक बस चुका डाउरी सिस्टम इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है. गार्जियन का एक्सप्रेशन ऑफ केयर कब कंप्लशन बन गया पता ही नहीं चला. शादियों में खुशी में छुड़ाये जाने वाले पटाखों ने भी अपना स्वरूप बदलकर असलहों से फायरिंग का रूप ले लिया. प्रतिवर्ष कितने ही इस फिजूल के पॉम्प एंड शो में अपनी जान गंवा देते हैं. वैसे बदलाव हमेशा नकारात्मक ही नहीं होते. क्रिकेट का भी स्वरूप बदला तो रोमांच और मनोरंजन से भरपूर ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट का उदय हुआ. पर इसके इतना पॉपुलर होने के बाद भी हम नहीं भूले कि क्रिकेट का असली स्वरूप टेस्ट क्रिकेट ही है. दसवीं और बारहवीं बोर्ड एग्जाम में अब ग्रेडिंग सिस्टम लाने की तैयारी है. शिक्षा का भी स्वरूप बदला है पर हम नहीं भूले हैं कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान है. किसी के लिए बोझ बनना नहीं.
इसी कड़ी में हमने होली को भी नहीं छोड़ा। अभी-अभी होली बीती है। प्रशासन का साफ आदेश था कि जो होली नहीं खेलना चाहते, उन्हें जबरदस्ती रंग ना लगाया जाए. फिर भी हम नहीं माने. फागुन की मस्ती में रंगों के अलावा कीचड़, पेंट, वार्निश, पोटाश और न जाने कौन-कौन से सबस्टीट्यूट का प्रयोग जमकर हुआ. बुरा न मानो होली है की टैगलाइन प्रयोग जमकर हुआ. विरोधियों के कपड़े होली के नाम पर फटकर शहीद हो गए. सड़कों पर शराबियों की धींगामुश्ती आम ऩजारे की तरह दिखाई दी. अब होली की दिन शराब की बढ़ती एक्सेप्टेंस देखकर तो यही लगता है कि शायद एक दिन होली को सरकार मद्यपान दिवस न घोषित कर दे. कभी-कभी ऐसा होता है कि बड़े-बड़े मुद्दों पर बात करते-करते छोटे मसले अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं. उम्मीद है, अब हम इस तरह के नजरअंदाजी से बचने की एक कोशिश तो जरूर करेंगे. यानी तस्वीर में जो रंग हैं, उन्हें उनकी ओरिजनैलिटी के साथ एक्सेप्ट करने में ही भलाई है.
Posted by अभिषेक at 7:54 PM 1 comments
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