Friday, February 20, 2009

बड़ा डिफरेंट है यह-"इमोशनल अत्याचार"

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शरतचंद के उपन्यास "देवदास" को इस सन्दर्भ में प्रस्तुत करने के लिए,अनुराग कश्यप,साहित्य प्रेमियों की तीखी आलोचनाओं का शिकार हो सकते हैं परन्तु उनका यह कदम अत्यंत साहसिक है और कई मायनों में सराहनीय भी.देवदास उपन्यास बॉलीवुड के लिए एक बेशकीमती साहित्यिक रचना है जिसे हमने विभिन्न कालखंडों में पी सी बरुआ,विमल राए और संजय लीला भंसाली की नज़रों से देखा है .के एल सहगल,दिलीप कुमार,शाहरुख़ खान,इन तीनो ने देव के आदर्श को अपने तरह से जिया है पर अभय देओल कई मायनों में अलग हैं.उसका चरित्र ऐसा नहीं है की उसे आदर्श मानकर फालो किया जाये .अनुराग के देव डी के किरदार हमारे वर्तमान समाज के हैं,चूँकि यह किरदार आदर्श नहीं हैं और हम खुद के अंदर झाँकने से डरते है इसलिए हम इन किरदारों के बारे में चर्चा करने से भी कतराते हैं॥
देव डी" का देव,स्वयं से प्रेम करने वाला आज का बिगडैल युवा है जो पारो के प्रेम में असफल होकर ड्रग्स,वेश्यावृत्ति का का सहारा लेता है.वह इतना माडर्न है की अपनी प्रेमिका पारो से उसकी नग्न तस्वीरें मांग सकता है पर इतना पारंपरिक सोच का भी जो लोगों की बातें सुन,उसे छोड़ भी सकता है.इस देव में शरत बाबु के देव के कोई भी आदर्श नहीं हैं..पर चंदा की देव के बारे में राए माने तो वो बुरा भी नहीं है .ऐसे युवक आज आपको समाज में बहुतायत में मिल जायेंगे.यह कोई कॉलेज का स्टुडेंट हो सकता है,कोई नौकरी पेशा,कोई चाय बेचने वाला या कोई अभिजात्य वर्ग का.प्यार में धोखा और अवसाद आज अनेको युवाओं की सामान्य समस्या है।
वहीँ "देव डी" की पारो भी एक ऐसे प्रेमिका है जो देव से प्रेम तो करती है पर जरूरत पड़ने पर घर के नौकर से सेक्स सुख लेने से नहीं कतराती.वह देव के पतन से दुखित तो है पर वक़्त पे उसे उसकी "औकात" याद दिलाने से भी नहीं चूकती.इसके लिए कुछ लोग नारी चरित्र के दूषित चित्रण की दुहाई जरूर दे सकते हैं पर नारी स्वभाव बदल रहा है हमें इस बात को स्वीकार करना होगा.वह पहले की अपेक्षा ज्यादा बोल्ड हो चुकी है. वो आज की नारी है जो अपनी जरूरतों को छुपाने में नहीं बल्कि बतानें में यकीन रखती है।
रही बात चंद्रमुखी या चंदा की, वह एक सेक्स वर्कर है जिसके लिए देव एक कस्टमर से ज्यादा है.वो सपने देखती है.वो दिन के रौशनी में अपनी पढाई भी पूरी करती है.उसे कई भाषाओँ का ज्ञान है और वो इसका प्रयोग लोगो को फ़ोन सेक्स उपलब्ध कराने में करती है..वह पुराने चंद्रमुखी की तरह नहीं है जिसके किस्मत में सिर्फ कोठा ही लिखा है..कोठे के बाहर भी उसकी एक सोशल लाइफ है.जहाँ वह हंस बोल सकती है और नए दोस्त बना सकती है..उसे हालात के साथ उसे बदलना भी आता है .आज की चन्द्रमुखी मजबूर नहीं है.वह माधुरी दिक्षित के संवाद "तवायफों की किस्मत ही नहीं होती"में भरोसा नहीं रखती..उसके अपने सपने हैं और अपनी जरूरतें भी॥
चुन्नी की दोस्ती की बिना देव अधूरा है. भले ही देव के पतन में चुन्नी की भागेदारी भी हो पर उसके दिल में देव के लिए हमदर्दी भी है.नया चुन्नी बदल चुका है.वो वेश्याओं का दलाल है जिसे देव से ज्यादा उसके पैसे और स्टेटस प्यारा है.वो हालत बदलने पर देव से दोस्ती तोड़ भी सकता है.वो पुराने चुन्नी की तरह नहीं है जो चंद्रमुखी का कद्रदान हो..वो स्त्री को "बिल्ली" समझता है जिसके बारे में वो अक्सर देव को सलाह देता है कि "बिल्ली को मार लो,खा लो पर पालो मत".चुन्नी का चरित्र आज के दौर के सस्ते और सतही मित्रता पे एक कटाक्ष है ।
हालांकि यह एक बहस का विषय हो सकता है की कालजई उपन्यासों की मूल आत्मा से इस प्रकार की छेड़-छाड़ वैध है की नहीं लेकिन आज का दर्शक कहीं न कहीं आधुनिक परिवेश के इस नए आयाम से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है.देव डी की भाषा सिनेमा की भाषा नहीं है,यह सड़क की भाषा है,गाली गलौज और चीप शब्दों का प्रयोग सिनेमा के लिए हमेशा फिट नहीं होते लेकिन माडर्न हालातों में स्वीकार्य है.भारतीय फिल्म इतिहास में बहुत कम ऐसे दृश्य होंगे जहाँ नायिका सेक्स हेतु स्वयं पहल करे इसलिए पारो का सायकिल पर गद्दा रखकर खेतों में जाने का दृश्य अचंभित भी करता है और गुदगुदाता भी.यह नई पीढी का प्रेम है जहाँ प्यार एक जरूरत है.यहाँ "प्यार होता नहीं किया जाता है".एक और सकारात्मक पहलू है देव डी का.इसमें देव पारो के दरवाजे पे मरता नहीं.उसमें सुधर जाने और चंदा के साथ नयी ज़िन्दगी शुरू करने की गुंजाईश है . सबसे ज्यादा बधाई के पात्र हैं-अनुराग कश्यप जिन्होंने "इमोशनल अत्याचार" के इस नए फंडे से हमें परिचित कराया है.. उन्होंने आज के दौर में एक मुश्किल कदम उठाया है पर अक्सर शुरुआत ,ऐसे ही होती है.