Thursday, December 10, 2009

MOUNTAIN CALLING

'हाईवे-यात्रा' का भी एक अलग दर्शन है.सफ़र के दौरान हाईवे पर दिखने वाली हर चीज एक कहानी बयान करती है.मीलों मील का सुनसान रास्ता,जिसमे सड़क के किनारे गाडी लगा कहीं भी खड़े होकर दैनिक क्रियाओं से निपटते लोग़.जिनकी आत्मविश्वास से घूरती निगाहें मानो यही कहती हैं कि इस सुनसान में उन्हें,कौन पहचानने वाला है?वो खाने पीने के अनगिनत ढाबे,जहाँ पकवानों से ज्यादा,खाली डोंगे और तसले दुकान के गेट की शोभा बढ़ाते हैं और कभी कभी ही फंसने वाले ग्राहकों को आकर्षित करते हैं.गाहे बगाहे मिलने वाले,भयंकर ठंडी,महाठंडी बीयर की दुकानें मानो हाईवे जर्नी बिना उनके सेवन के संभव ही न हो.देश में नपुंसकता और मरदाना कमजोरी कितनी बड़ी समस्या है,यह भी हाईवे पर दिखने वाले नीम हकीमो के वॉल-पेनटिंग से पता ही चल जाता है.

दूबे जी के साथ पिछली हाईवे यात्रा बड़ी यादगार रही.वैसे विचारधारा में उनसे मेरा छत्तीस का आकड़ा है,फिर भी यात्रा के बोरिंग लम्हों में चुपचाप बैठे रहने से अच्छा देश की समस्याओं पर दूबे जी का भाषण और नसीहतें सुनना,ज्यादा मनोरंजक है.बातचीत के दौरान एक तेज रफ़्तार ट्रक ने हमें गलत साईड से क्रास किया.अभी हम आगे कुछ मील बढे ही थे कि वो ट्रक हमें सड़क के बीचो बीच धराशाई मिली.दूबे जी सुरक्षित बचे ट्रक ड्राईवर का हालचाल लेने लगे.ड्राईवर पहाड़ो का रहने वाला था और थोडा सांत्वना के बोल सुनते ही अपने दुखों का पिटारा खोल के बैठ गया.पहाड़ी क्षेत्रों में बढती बेरोजगारी और प्रदूषण से दुखी वृद्ध ड्राईवर,अपने बचपन के खूसूरत लम्हों को बयाँ करने लगा.ड्राईवर ने जो बताया,सो बताया पर पहाड़ों का हमारे जीवन में जो महत्व है,उसे कत्तई नज़रंदाज़ नही किया जा सकता.

बचपन में घूमने फिरने या आऊटिंग के लिए पहाड़ों पर जाना मुझे बहुत पसंद था.शादी के बाद संभवतः मेरी तरह का हर युवा हनीमून के लिए भी पहाड़ों पर जाना चाहता है और जीवन के उत्तरार्ध में भी पूजा पाठ और भक्ति के लिए पहाड़ एक अच्छा डेस्टिनेशन है.यानि ज़िन्दगी के हर फेज़ में पहाड़ हमें अपनी ओर बुलाते हैं.यह पहाड़ और वादियाँ सौंदर्य प्रेमी कवियों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं.पहाड़ धैर्य,शक्ति,जीवटता,अभिमान,स्थायित्व आदि का भी प्रतीक है.हमारे मुहावरों में भी इन्हें सजाया गया मसलन-खोदा पहाड़ निकली चुहिया,राइ का पहाड़,दुखों का पहाड़,ऊँट पहाड़ के नीचे आदि.हमारी फिल्मों की कलात्मकता को भी चार चाँद लगाया पहाड़ों ने.सोचिये यह पहाड़ न होते,तो वादियों में हीरो हीरोईनों की आवाज कैसे गूंजती.शम्मी कपूर याहू गाने पर बर्फ के बजाए कहाँ उछलते?

हमारे माईथोलोजी में भी पहाड़ों का उल्लेख मिलता है.भोले शंकर का निवास स्थान कैलाश पर्वत पर बताया गया है.समुद्र मंथन में भी मंदराचल पर्वत की भूमिका रही.मुहम्मद साहब को पहला रीवीलेशन 'जबल नूर' पहाड़ के हिरा नाम के गुफा मे मिली.यहूदी और क्रिश्चन मान्यताओं में,ईश्वर के टेन कमांडमेंट्स भी मोज़स को पहाड़ों में ही मिले थे.सवाल यह है कि जीवन के हर पहलू में जब पहाड़ों का इतना इमपारटेंस है तो हम कब इसके महत्व को समझेंगे?वैसे ११ दिसंबर हम 'इंटरनेशनल माउनटेन डे' के तौर पर मना रहे हैं जिसका मुख्य उद्देश्य पहाड़ों का संरक्षण और विकास है पर हम कहीं से भी पहाड़ों को लेकर चिंतित नही दिखते.

बढ़ते प्रदूषण और वनों की कटाई ने पहाड़ों में भूस्खलन को बढ़ा दिया है.बहुत सारे उपयोगी पौधे और हर्ब्स गायब हो रहे हैं.ग्लोबल वार्मिंग ने भी पहाड़ों को पिघलाना शुरू ही कर दिया है.हमारी समस्या यह है कि हम घाव के नासूर बनने के बाद,इलाज ढूंढते हैं.वैसे पर्यावण से जुड़े समस्याओं पर विश्व पहले से ज्यादा चौकन्ना है पर ज़मीनी और बुनियादी स्तर पर भी जागरूकता की जरूरत है.अगर आपने होलीवुड फिल्म २०१२ देखी हो तो फिल्म के अंत में आपने देखा ही होगा कि प्रलय के बाद बनी नयी दुनिया की सबसे ऊंची जगह अफ्रीका के ड्रेकंसबर्ग पर्वत को बताया गया है.सन्देश तो यही है न कि प्रलय के बाद भी इंसान रहे न रहे,यह पर्वत जरूर रहेंगे.सोचना तो हमें अपने बारे में है इसलिए क्यों ना खुद के लिए इन पहाड़ों के बारे में भी थोडा सोचना शुरू कर दें?

११दिसंबर को i-nextमें प्रकाशितhttp://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=12/11/2009&editioncode=1&pageno=16

Friday, November 27, 2009

वो मुड़- मुड़ कर देखना.

दूबे जी आजकल फ्लू से पीड़ित हैं. बदलते मौसम में यह एक सामान्य बात है.पर बात बात पर हम युवाओं और युवा पीढ़ी को कोसने वाले दूबे जी पर चुटकी लेने का मौका कम ही मिलता है सो ऐसा दुर्लभ मौका गवाना मैंने उचित नही समझा.उनसे मिलते ही मैंने पहला बाउनसर डाला.उनके फ्लू को स्वाईन फ्लू की सम्भावना बताकर टेस्ट कराने की हिदायत दे डाली.वो अभी इस वार से सम्हल भी ना पाए थे कि मैंने दूसरा तीर चलाया.मैंने कहा कि उनके जैसा व्यक्ति जो मौसम नही बल्कि बदलते हुए महीने और गुजरते हुए त्योहारों को देखकर कपडे पहनता है(दीवाली के बाद उनके गले में लिपटा मफलर होली के बाद ही उतरता है),वो मौसम के इस हलके फुल्के मिजाज का कैसे शिकार हो गया?

खस्ताहाल दूबे जी,ने इसका भी ठीकरा युवाओं के सर ही फोड़ा.बताने लगे कि आजकल वो लोगों के फैशन बेहेविअर को भी देखकर मौसम का निर्धारण करते हैं.करीब करीब चीखते हुए कहने लगे कि यह आजकल के लड़के लडकियां,इस ठण्ड में भी,इन हलके फुल्के फश्नेबल कपड़ों को ना पहने तो इनका काम ही न चले.कहाँ से कहाँ उन्होंने,उनके इस ट्रेंड को देखकर मौसम का गलत पूर्वानुमान लगाया और बीमार हो गए.बातचीत के दौरान यह भी पता चला कि शहर की कुछ ख़ास लडकियां भी उनके इस हालात् के लिए जिम्मेवार हैं.यह वो हैं जो गर्मी और तेज धूप से बचने के लिए,जून जुलाई में चेहरे को कपड़े दुपट्टे आदि से छिपाकर दुपहियां वाहनों पर चलती हैं.उनकी शिकायत है कि इन सर्दियों में भी वो ऐसा करके धूप गर्मी होने का गलत संकेत क्यों देती हैं?भोले भाले दूबे जी को अब क्या पता कि मौसम की मार से बचने के अलावा यह ट्रेंड बहुत सारी यांगिस्तानियों को मम्मी पापा भाई आदि की नज़रों से बचने,मल्टिपल बॉयफ्रेंड्स मैनैज करने आदि के भी काम आता है.

मेरी बात पूरी तरह से सही नही पर रोजमर्रा की ज़िन्दगी में बहुत ऐसे उदहारण भी मिलते हैं जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि क्या आज के युवा के दो आयाम हैं?एक निजता के पलों में मुहफट,बिंदास,शोख और दूसरा सार्वजनिक तौर पर शिष्टाचार,हया और सादगी से भरा.जी नही.ऐसा नही है.आज का युवा,आडम्बरों में नही जीता,दिल की बातें डायरेक्ट जुबान से बया करता है.पर हमारा सामाजिक परिवेश ही कुछ ऐसा है जो उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करता है.चलिए एक एक्साम्पल देता हूँ.बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड होना हमारे यहाँ सामाजिक तौर पर स्वीकार्य नही.बहुत ही कम अभिभावक अपने कन्या को अपने सामने उसके बॉयफ्रेंड से बातें करते देखना पसंद करेंगे .पर मैंने ऐसे अनेको उदहारण देखें हैं जहाँ सगाई होने के बाद अनेको पिता,होने वाले दामाद जी का फ़ोन खुद जाकर बेटी को देते हैं और फिर चाहे वो घंटों तक बातें करती रहे,निश्चिंत रहते हैं.हमारे कुछ फ़्रसटेट दोस्त इसे 'लाइसेंस प्राप्त रोमांस' का दर्जा देते हैं.यानी लड़की शादी से पहले किसी को चुने तो अभिवावक परेशान और अगर आप खुद चुनकर दो,तो कोई दिक्कत नहीं.

वस्तुतः सही और गलत को लेकर हमारा फंडा ही ज़रा कनफ्यूज़ड है.'काबिल' बेटा जब आपके सामने शराब पीता है तो यह उसका बोल्ड और पारदर्शी व्यवहार है और अगर आपके पीछे पीता है तो इसे 'लिहाज' का दर्जा दे दिया जाता है.नालायक बेटे तो किसी तरह से भी शराबी ही कहलाते हैं.यानी शराब ख़राब है या नही,यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है.वैसे,सिर्फ आलोचना करने से क्या होने वाला है?आज का युवा बहुत हद तक इन समस्याओं को समझने लगा है और इसके अनुसार ढल भी चुका है.वो अपने बड़े बुजुर्गों का आदर भी करता है और अपनी ज़िन्दगी को अपने तरह से जीता भी है.इसका एक उदहारण मुझे रेलवे स्टेशन पर तब देखने को मिला जब जींस टॉप सजी में एक आधुनिक युवती ट्रेन से अपने सास के उतरने पर सर पर अपने स्टाइलिश स्टोल को रखकर पाँव छूकर आर्शीवाद लेती दिखी.यानी युवा तो बदल गया है पर अब समाज के दूसरे हिस्सों को भी बदलने की जरूरत है.शायद तभी वो खाई पटेगी जिसे लोग 'जेनेरेशन गैप' कहते हैं.
२८ नवम्बर को i-next में प्रकाशित.http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=11/28/2009&editioncode=1&pageno=16

Thursday, November 12, 2009

शुगर फ्री होती लाईफ

'आ बैल मुझे मार' वाली कहावत तो आपने सुनी ही होगी.दूबे जी से बात करना कुछ वैसा ही है.सुबह सुबह उनको,अपने सुपुत्र पर आग उगलते देख कहाँ से कहाँ मैंने उनसे इसका कारण पूछ लिया.बस हो गए शुरू.बताने लगे कि उनके लड़के से बड़ा नालायक तो इस दुनिया में कोई नहीं.उसे यह भी नहीं पता कि इस महीने,देश दुनिया में क्या महत्वपूर्ण हो रहा है?जब उन्होंने अपनी प्रश्नवाचक नज़रें मुझ पर डालीं तो मैंने दिमाग पर जोर देते हुए उन्हें बताया कि किंगफिशर कैलेंडर गर्ल २०१० की तलाश शुरू है,बिग बॉस के घर में घमासान मचा हुआ है,रोडीज़ ७ शुरू हो चुका है,शिल्पा शेट्टी शादी करने वाली हैं और तो और मोबाइल में सेकंड की कॉल रेट लागू हो चूकी है.अब महंगाई और आतंकवाद से यूज टू हो चुके आम इंसान को कुछ पलों के लिए एम्युजमेंट देने वाली इन ख़बरों से ज्यादा इमपोरटेंट क्या हो सकता है?

दूबे जी फट पड़े और मेरी यंग जेनरेशन को कोसने लगे.चूँकि यह मेरे लिए आम बात है तो मैंने इसे नज़रंदाज़ करके यह पूछ ही लिया कि वहीँ अपने प्रश्न का उत्तर दें.वो बताने लगे कि १४ नवम्बर को हम वर्ल्ड डाईबेटीज डे मनाएंगे.उनके अनुसार,यह डाईबेटीज,देश के सामने खड़ी,सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है.मैंने उन्हें बताया कि १४ नवम्बर को तो हम चाचा नेहरु का जन्मदिन 'बाल दिवस' के तौर पर भी तो मनाते हैं तो वो भावुक हो उठे.कहने लगे कि अगर आज चाचा नेहरु होते तो खेल के मैदान छोड़कर कंप्यूटर पर चिपके और जंक फ़ूड खा खा कर कुप्पा होते इन बच्चों को देखकर कितना दुखित होते .वो तो बेडा गर्क हो इन कंप्यूटर वालों का जो कबड्डी,गिल्ली डंडा,साईकिलिंग जैसे शारीरिक एक्टिविटी वाले खेल भी घर के चारदीवारी के बीच कंप्यूटर स्क्रीन पर उपलब्ध कराने लगे हैं.

मैंने बात को टालने के लिए इस बीमारी को 'बड़े लोगों की बीमारी' करार दे दिया.पर आज दूबे जी का दिन था.वो अपने आंकडों के साथ तैयार थे.कहने लगे कि डाईबेटीज और डेमोक्रेसी एक जैसे हैं.सभी वर्ग के लोगों को सामान रूप से देखती हैं.वास्तव में इस रोग के विश्व व्यापी रूप को देख कर ही अंतर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडेरेशन (आई. डी. ऍफ़.) ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ मिल कर वर्ल्ड डाईबीटीज डे की शुरुआत १९९१ में की। यह इंसुलिन के खोजकर्ता फ्रेद्रेरिक बैंटिंग के जन्म दिवस पर मनाया जाता है।मैंने उन्हें याद दिलाया कि क्या वैसे ही हमारे पास ऐड्स,गठिया,दमा,टी बी,और यह नया नया स्वाइन फ्लू जैसे रोग कम हैं कि आप डाईबीटीज जैसे बीमारियों से परेशान हैं तो उन्होंने एक और आंकडा मेरे मुह में ठूंस दिया.अंतर्राष्ट्रीय डायबिटीज़ फेडेरेशन के अनुसार, २००७ में लगभग ४.१ करोड़ भारतवासी मधुमेह से पीड़ित थे, जो विश्व भर के मधुमेहियों का १६.७ प्रतिशत है। यह संख्या २०२५ में ७ करोड़ तक बढ़ जाने की संभावना है.

अंततः मुझे भी एहसास हुआ कि मामला गंभीर है.बचपन से मधुमेह रोग को इतने कॉमन तरीके से अपने आस पास देखा है कि इसकी भयावह रूप और प्रसार से अछूता रहा.मैं तो यही समझता रहा कि यह एक ऐसी राजसी बीमारी है जिसमे आपको ख़ास तवज्जो मिलती है मसलन अलग से बिना चीनी की चाय बनना,लोगों को दिखाना की आप खाने के मामले में कितने चूजी हैं,यह खाना है,यह नहीं खाना है आदि आदि. पहले तो यह उम्र दराज़ लोगों की बीमारी समझी जाती थी पर अब हालात् बदल चुके हैं.असंतुलित भोजन और गड़बड़ जीवन शैली ने युवाओं तक को इसके चंगुल में ले लिया है.बाज़ार ने भले ही हमारे लिए लो शुगेर मिठाईयाँ और लो कैलोरी सुगर उपलब्ध करा दी हों,भले ही लोग आज मुँह मीठा नहीं, कुरकुरे कर रहे हों पर सिर्फ इतना ही काफी नहीं है .२००९-२०1३ के लिए वर्ल्ड डाईबीटिस डे की थीम है-Diabetes Education and Prevention.आईए,इससे जुड़ीं जानकारियों के प्रसार का हिस्सा बन इसकी रोकथाम में मदद करें वरना वो दिन दूर नहीं जब आप ख़ुशी के पलों में किसी से यह भी ना कह सकेंगे कि-'कुछ मीठा हो जाए'.
13 नवम्बर को i-next में प्रकाशित.http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=11/13/2009&editioncode=1&pageno=16#

Wednesday, October 28, 2009

DREAMS UNLIMITED

मेरे बहुत ही करीबी दोस्त,राए का बचपन से एक ही सपना था.जेम्स बान्ड की तरह निडर होकर बेतहाशा गाडी चलाना और अपने घर के नीचे अंडर ग्राउंड तहखाना बनवाना(क्यों,यह नही पता).अंडरग्राउंड तहखाना बनवाने के लिए वो इतना पजेसिव था कि वो सारा जीवन झोपडे में गुजारने को तैयार था पर झोपडे के नीचे तहखाना जरूर होना चाहिए था.सपने तो सपने होते हैं.वर्तमान में राए मेट्रो रेल में ड्राईवर है.अब वो जेम्स बान्ड की तरह बेतहाशा गाडी भी चलाता है और उसका अधिकाँश समय अंडरग्राउंड भी बीतता है.अब उसका सपना किस हद तक पूरा हुआ,इसके बारे में हम फिर कभी विस्तार से बातें करेंगे.

अब आपका सोचना लाजिमी है कि आज मैं किसी के सपने के बारे में बात क्यों कर रहा हूँ?कारण यह है कि आज बहुत दिनों बाद जब मैं अपने लाइफ को इवैलूऐट करने बैठा तो खुद को वहां नही पाया जहाँ मुझे होना चाहिए था.बहुत आत्ममंथन के बाद मुझे इसकी एक ही वाजिब वजह लगी.वो था,मैंने ज़िन्दगी में आगे बढ़ने के लिए सपने तो देखे पर वो सपने स्थिर न थे.वो वक़्त और हालात् के साथ बदलते रहे.अगर एक ही सपना हमेशा देखा होता तो कम से कम राए की तरह उसके करीब तो पहुँच ही गया होता.

जब छोटा था तो जेट पाइलट बनने का सोचता था.किशोरावस्था में डॉक्टर बनने का सोचने लगा.उन्ही दिनों क्रिकेट का खुमार था तो बहत सारा मूल्यवान समय क्रिकेट ग्राउंड पर सचिन सहवाग बनने में खर्च कर दिया.फिर लगा,कि करीयर से बढकर कुछ नहीं तो प्रोफेशनल कोर्स में दाखिला ले लिया.देश पर जब आतंकी हमला हुआ तो NSG कमांडो बनने का भी कुछ दिन ख्याल आया.होश आया तो पता चला कि कुछ भी न बन पाया.

चलिए,अपने बारे में ज्यादा बात नही करूंगा.इतना कुछ बताने की सिर्फ एक वजह है.मेरी ही तरह आज का अधिकाँश युवा,सपने तो देखता है पर वो पूरे इसलिए भी नही होते क्योंकि वक़्त और सोसल ट्रेंड,उसके सपनो को बदलते रहते हैं.सपने बदलते है तो लक्ष्य भी बदल जाता है.यानि युवा के सामने एक डिलेमा की स्थिति हमेशा बनी रहती है कि उसे करना क्या है?अगर सपना एक हो,स्थिर हो तो उसे पूरी करने की जिजीविषा ही हमें उसके करीब तक पहुंचाती है.

इसे एक एक्साम्पल से समझते हैं.मेरे एक मित्र बचपन से ही जासूसी प्रवृति का था.जासूसी उपन्यासों,फिल्मों और धारावाहिकों का उस पर इतना प्रभाव बढ़ चुका था कि एक बार देर रात को उनके पिताजी के घर आने पर,उसने दरवाजा खोलने से इनकार कर दिया.दरवाजा खोलने के लिए उसने पिताजी को 'कोडवर्ड' बोलने को बोला.पिताजी ने कौन कौन सा 'वर्ड' बोला,वो छोडिए.पर उसका यह दिमागी फितूर कुछ हद तक उसके प्रोफेशन को निर्धारित करने का कारण रहा.आज वो एक सफल प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी का मालिक है.

शाहरुख़ खान जब मुंबई में संघर्ष करके टूट चुके थे तो एक दिन शाम को सी-बीच पर उन्होंने सपना देखा था कि एक दिन उन्हें इस शहर पर राज करना है.शहर तो क्या,आज वो पूरे देश के दिलों पर राज कर रहे हैं.मशहूर हॉलीवुड अभिनेता,बॉडी बिल्डर और पौलीटीशीयन अर्नाल्ड शौजनेगर को कौन नही जानता.उन्होंने जो भी सपने देखे,वो अधिकांशतःपूरे हुए.एक ख़ास सपना भी देखा था उन्होंने.अमेरिका के रास्ट्रपति के बेटी से शादी करना.यह सपना भी कुछ हद तक पूरा हुआ.उनकी पत्नी,पूर्व अमेरकी रास्ट्रपति कैनेडी की भांजी हैं.

आखिर में सिर्फ इतना कहना है कि हमें सपने तो देखने हैं पर उसे बदलने नही देना है.वो हमेशा देखा जाने वाला सिर्फ एक सपना कहीं न कहीं,कभी न कभी,हमें हमारे लक्ष्य के आस पास तक तो जरूर पहुंचाएगा.जानते हैं,अब मेरा भी एक सपना है पर जरा सीक्रेट है,कभी बाद में बताऊंगा.तो इंतज़ार किसका है.आईए,अपने सपनो की दुनिया में डूब जाएँ और उस एक स्पेशल सपने को निर्धारित कर लें.पर एक बात का ख्याल रखना है की यह प्रोसेस मात्र दिवास्वप्न देखना भर साबित न हो.

(29अक्टूबर को i-next में प्रकाशित http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=10/29/2009&editioncode=2&pageno=16

Friday, October 9, 2009

हमारा नेटवर्क टू तुम्हारा नेटवर्क

आपको एक मोबाइल कंपनी का वो बहुत ही फेमस ऐड तो याद ही होगा जिसमें सर्विस प्रोवाइडर खुद को आपके पालतू कुत्ते के तौर पर देखता है और आपको हर जगह फॉलो करता है. पैसों के लिए लोग क्या नहीं करते. आजकल तो हर मोबाइल सर्विस के अपने अलग वादे हैं. आपका साथ न छोड़ना, आपके साथ हर जगह अवेलेबल रहना, बेहतरीन नेटवर्क या सर्विस प्रोवाइड करना, इसका दावा तो आजकल हर मोबाइल कंपनी कर रही है. ये दावे कितने सच हैं, यह अलग बात है लेकिन एक बात तो पक्की है कि यह मोबाइल सर्विसेज हमारी नयी दोस्त हैं और यह विश्वास और सुविधाओं के नए आयाम गढ़ रहे हैं.

हम कलियुग में जी रहे हैं. मैंने अपने तरीके से कलियुग के पिछले 30-40 सालों को दो हिस्सों में कैटेगराइज किया है. पहला टेलीफोन युग और दूसरा मोबाइल युग. पेजर युग का नाम इसलिए नहीं क्योंकि पेजर अपने जन्म के कुछ दिनों बाद. अपने बचपन में ही आजकल मौत का शिकार हो गया. पहले बात टेलीफोन युग की. भले ही आजकल टेलीफोन इनडेंजर्ड स्पेसीज में शामिल हो गया है पर इसका भी एक सुनहरा दौर था. सरपंच जी के घर पर लगा टेलीफोन सेट सारे गांव की लाइफलाइन हुआ करती थी जिसकी सेवा पर गाहे-बगाहे मौसम की मार भी पड़ती रहती थी. भले ही आप यह घंटों सुनते रहें कि इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं, कृपया थोड़ी देर बाद डायल करें पर दिल था कि मानता नहीं.

ट्रंक कॉल बुक करने का एक सामाजिक रुतबा था. चोरों के भी ऐश थे. अरे भई, टेलीफोन वायर काफी ऊंची कीमतों पर बिकता था. इन अंडर ग्राउंड वायरिंग और मोबाइल कंपनियों ने तो चोरों के पेट पर लात ही मार दी. चलिए, टेलीफोन युग के बारे में बातें फिर कभी. अभी बात करते हैं मोबाइल युग की. आजकल सुबह हम अलार्म के कर्कश शोर से नहीं बल्कि मनपसंद रिंगटोन से उठते हैं. कलाइयों पर घड़ी सिर्फ फैशन के लिए रह गयी है, समय तो हमें हमारा मोबाइल ही बताता है. आज सबके अपने निजी मोबाइल एफ एम सेट और एमपीथ्री प्लेयर्स हैं. आज भी याद आता है वो हाई स्कूल और इंटर के बोर्ड एक्जाम का रिजल्ट आने का दौर जब सिर्फ एक न्यूजपेपर में सैकड़ों लोग सर घुसाकर अपना रोल नंबर ढूंढते थे. आज तो मोबाइल स्क्रीन पर पूरी की पूरी मार्कशीट ही मिल जाती है.
यह तो हुई मोबाइल की एड ऑन सेवाएं, बेसिक रिक्वॉयरमेंट तो है बात करना. पर आजकल लोग बात नहीं करते हैं. बातें करने के लिए भी तरह-तरह के स्कीम हैं. उनका मोबाइल टू हमारा मोबाइल. हमारा मोबाइल टू हमारा मोबाइल, आपका मोबाइल. स्कीम इतनी सारी कि सुनकर चक्कर आने लगे. याद आता है 90 के दशक का वह दौर जब टेलीफोन कनेक्शन के लिए लगी मीलों लम्बी लाइन में घंटों खड़े होने के बाद मेरे पाप ने फार्म डाला था.

आज देखिए, चंद रुपये खर्च करते ही सिम कार्ड घर पर अवेलेबल हो जाता है. कितना कुछ बदल गया है इस मोबाइल के आने के बाद. वैसे मोबाइल के फायदे को इतने कम जगह में बताना मुश्किल है पर इस छोटी सी डिवाइस ने हमारी के साथ हमें भी बदल कर रख दिया है. कैसे? आप दिल्ली में रहकर खुद को मुंबई में बताइये, झूठ बोलने की ऐसी सुविधा सिर्फ मोबाइल पर ही है. बात न करनी हो तो थोड़ा हैल्लो-हैल्लो बोलकर कह दीजिए कि नेटवर्क नहीं आ रहा. फोन दूसरों की जरूरत पर ऑफ कर लीजिए और कह दीजिए कि बैटरी खत्म हो गयी थी. शहरों, कस्बों के बीच दूरियां घटी हैं पर दिलों के बीच दूरियां बढ़ी ही हैं. आज हम अपने बगल में रहने वाले इंसान से भी मोबाइल पर ही बात कर लेते हैं पर उसके पास जाकर कुछ समय बिताने की जहमत नहीं उठाते. आपको नहीं लगता इस मोबाइल ने हमें बहुत कुछ देकर बहुत कुछ छीन भी लिया है, सोचिएगा जरूर. फिलहाल मेरा मोबाइल बज रहा है..मैं चलता हूं.

Wednesday, September 16, 2009


दूबे जी आजकल मीडिया चैनलों पर कुपित हैं.बताने लगे कि अब तो न्यूज़ चैनल आजकल पुरानी खबरों को रेटेलेकास्ट कर देते हैं.मैं भी सुनकर भौचक्का हो गया कि यह दिन आ गए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कि रंगोली और गीत बहार के एपिसोड्स कि तरह खबरें भी दुहराने लगे.उनके अनुसार रेटेलेकास्ट न्यूज़ के कुछ उदहारण यह रहे-,हरभजन विवादों में,दिल्ली मेट्रो रेल पटरी से उतरी,पाकिस्तान ने किया सीज फायर का उलंघन ,अरुशी हत्याकांड में ठोस सुराग अभी तक नही,.मामले को जब मैंने समझा तो मैंने उन्हें बताया कि यह ख़बरों का रेटेलेकास्ट नही है.यह खबरें बिलकुल नयी हैं बस लोग,विवाद और मुद्दे मीडिया में नयी नयी वजहों से बने रहते हैं.एक्साम्पल के तौर पर अगर आप किसी न्यूज़पेपर में यह हेड लाइन देखे कि पाकिस्तान फिर भारत से वार्ता को तैयार तो आप इसे पुँरानी खबर थोड़े ही न कहेंगे?जब से दोनों देश अलग हुए हैं वार्ताओं का दौर जारी है और आगे भी रहेगा.

सच्चाई जानने के बाद खिसिएया दूबे जी का गुस्सा न्यूज़ चैनल से बदल कर समाज पर केन्द्रित हो गया.कहने लगे कि इस वैश्वीकरण और पाश्चात्य संस्कृति ने तो अपनी संस्कृति ही भ्रष्ट कर दी है.उनका गुस्सा जायज़ था.कुछ ही दिनों पहले फ्रेंडशिप डे के मौके पर उनका सपूत किसी नयी बाला से दोस्ती की हसरत लिए लड़कों से बुरी तरह पिट पिटा कर लौटा था.उनकी माने तो यह डेस जैसे फ्रेंशिप डे,रोस डे,वैलेंटाईन्स डे आदि सिर्फ रिश्तों का बाजारीकरण है.आगे बताने लगे कि जिन डेस को गंभीरता से लेने की जरूरत है,वो कब आकर गुज़र जाते हैं,पता ही नही चलता.वो 16 सितम्बर को मनाये जाने वर्ल्ड ओजोन डे के बारे में कह रहे थे.कहने लगे कि आज के युवा को तो मतलब ही न रहा पर्यावरण और उनकी समस्याओं से.बस,नाक कटाने वाले इवेंट्स का ही उन्हें इन्तेज़ार रहता है.

दूबे जी का गुस्स्सा सिर्फ उनके बेटे के करतूत का ही रिजल्ट न थी.कुछ हद तक वो सही भी हैं.गौर करेंगे तो आप पाएंगे कि फ्रेंशिप डे,वैलेंटाईन्स डे,रोस डे जैसे इवेंट्स के पास आते ही बाज़ार और विज्ञापन जगत जितना एक्टिव हो जाता है,उतना इन नेचर और सामाजिक सारोकार से जुड़े इवेंट्स के लिए नही.भागदौड़ और भौतिक सुखों कि चाहत में लिप्त मनुष्य ने कब उस नीली छतरी वाले के छाते में छेद कर डाला,पता ही नही चला.जी हाँ,मैं बात कर रहा हूँ,उस ओजोन लेयर के बारे में,जो हमारी अट्मोसफेअर की छतरी ही तो है.अर्थ के स्ट्रेतोस्फीयर में पाए जाने वाली यह कवच हमें सूर्य के अल्ट्रावोइलेट रेडिएशन से बचाती है.वो रेडिएशन जो मनुष्य के लिए तरह तरह के चर्म रोग,मोतिअबिंद, और कैंसर जैसे बीमारियाँ लाती है.ग्लोबल वार्मिंग,फसलों के उत्‍पादन में कमी, वनों की हानि तथा समुद्र जल स्तर में वृद्धि भी इसी का तो नतीजा है.

वैज्ञानिक अनुसंधानों एवं अनुमानों के अनुसार, ओजोन छिद्र में यदि एक सेमी की वृद्धि होती है तो उसमें 40 हजार व्‍यक्‍ति पराबैंगनी किरणों की चपेट में आ जाते हैं और 5 प्रतिशत से 6 प्रतिशत कैंसर के मामले बढ़ जाते हैं।वैसे इस जीवनदायिनी परत में छेड़ होने के बहुत हद तक हम ही तो जिम्मेदार है.एयर कनदिशनर्स और फ्रिज़ में प्रयुक्त क्लोरो फ्लोरो कार्बन का सही इस्तेमाल न होना ही इस विपदा का सबसे बड़ा कारण है.इसके अलावा हमारे नुक्लेअर टेस्ट से उत्पन गैस और विकिरण,अन्य ODS(ozone decaying susstance)-हैलोन, सीटीसी, मिथाइल क्लोरोफॉर्म,आदि भी इसके लिए जिम्मेदार हैं.

पर अब अपने लिए न सही तो अपने आने वाले पीढी के लिए कुछ कदम तो हम सबको उठाने ही होंगे.मसलन-ओजोन फ्रेंडली गुड्स खरीदना,फ्रीज एयर कनदिशनर्स, का सावधानीपूर्वक प्रयोग,फोम के तकिओं गद्दे की जगह रुई और जूट के बने सामान यूज करना,और ODS से बने किसी भी प्रोडक्ट का पूर्णतः बहिस्कार करना,आदि.आखिर में मह्नेद्र कपूर की आवाज में गाया एक गाना याद आता है जिसके बोल हैं,नीले गागन के तले,धरती पर प्यार पले.पर इंसान अगर जल्दी न सम्हला तो नीले गगन के तले प्यार तो क्या,जीवन का पलना दुश्वार हो जायेगा.यानी अब वो वक़्त आ गया है जब हम धरती के लिए आकाश को बचाएं.है कि नही?
मूल लेख हेतु क्लिक करें. http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=9/16/2009&editioncode=2&pageno=18

Saturday, August 29, 2009

LANGUAGE IN A NEW GET-UP


आपकी जिसमें भी आस्था हो(खम्मन पीर बाबा से लेकर साईं बाबा तक)उनका नाम लेकर,इस लेख के प्रारंभ में मैं यह लिख दूं कि अगर इसे पढने के बाद आपने किसी दूसरे को इसे पढने के लिए फॉरवर्ड न किया तो आपके बुरे दिन शुरू हो जायेगे तो आप क्या करेंगे?मेरा विश्वास है कि मन ही मन आप मुझे आर्शीवाद देते हुए शायद इसे फॉरवर्ड कर दें.कल मैंने भी ऐसा ही किया था .मेरे मोबाइल पर एक सन्देश प्राप्त हुआ जिसे ११ लोगों तक न पहुंचाने के परिणाम स्वरुप मेरे बुरे वक़्त शुरू होने का हवाला दिया गया.जी हाँ,इस प्रकार के लघु मोबाइल सन्देश आजकल बहुत आम हैं.पर क्या करें आस्था भी तो कोई चीज है.वक़्त के साथ साथ हमने बहुत कुछ चीजों को लाइफ स्टाइल का हिस्सा बनाया है जिसमे मोबाइल और उसके यह ऐड ऑन सेवा एस एम् एस सबसे प्रमुख हैं.
मोबाइल का प्रयोग करने वाले शायद किसी ही किसी इंसान ने इस फीचर का लाभ ना उठाया हो.फिर चाहे वो किसी को मोर्निंग या नाईट विश करना हो,या त्यौहार पर शुभकामनाएँ देनी हों,किसी रूठे को मनाना हो या टाइम पास करना हो,sms हर तरह से आपके साथ हैं.अब तो मोबाइल कंपनियाँ भी इसके महत्व को बाखूबी समझ गयीं हैं शायद इसिलए एक से बढ़कर एक एस ऍम एस टैरिफ कार्ड्स मौजूद हैं.हमारे टेली कोम कंपनियों को तो हमारी इतनी फिकर है कि आप कुछ पैसे खर्च करके शायरी,चुटकुले,साहित्य से लेकर प्लेन,ट्रेन आदि कि जानकारी,शेयर मार्केट की उठा पटक,क्रिकेट और देश विदेश की खबरें,भविष्यफल,कुछ भी मंगवा सकते हैं..

पर तिवारी जी एस ऍम एस के बढ़ते प्रभाव से बहुत आहत हैं.कहते हैं कि जब से यह एस ऍम एस संस्कृति प्रचलन में आई है,यह अपने साथ एक नयी भाषा भी साथ ले आई है.you घटकर सिर्फ u रह गया है,love में e अनावश्यक है इसलिए lov ही हिट है,my बदलकर ma हो चुका है.वो आगे बताने लगे कि प्रभाव इतना ज्यादा बढ़ गया है कि बच्चे अप्लिकेशन और नोटबुक दोनों में धड़ल्ले से गलत स्पेलिंग लिख रहे हैं और उसे सही भी बता रहे हैं.कल जब उनके बेटे ने उनका जनरेल नोलेज चेक करने के लिए asl का मतलब पूछ लिया तो वो न बता सके.बाद में पूरा मतलब जानकर वो खिसिआए बिना भी नही रह सके.

सोचिये,इस एस एम् एस के आने के बाद कितना कुछ बदला है.अगर आपके अन्दर से कोई शायरी बाहर आने को उतावली है तो बेझिजक उसे फॉरवर्ड कर लोगों को दे मारिए.नए विचारों का इतना अकाल है कि आपके विचार तुंरत स्वीकार कर लिए जायेंगे.चलिए,इसका एक और उपयोग बताता हूँ.इसमें नए रिश्ते जोड़ने की असीम शक्ति होती है.हमारे युवा बंधू अक्सर किसी से जुड़ने के लिए पहले तो उसका नम्बर प्राप्त करते हैं,फिर शायराना और दिल को छू लेने वाले संदेशों से टार्गेट का जीना हराम कर देते हैं.अपेक्षित व्यक्ति की कॉल आये तो रिश्तों की बुनियाद रखने की लपेटू प्रक्रिया शुरू और अगर भाई,पिता पुलिस आदि की काल हो तो तकनीकी गलती का हवाला देकर बच जाते हैं.
समय बदला तो साथ साथ यह एस एम् एस भी बदल गए.एस एम् एस कब एम् एम् एस हो गया पता ही नही चला.किसी को रिझाने के लिए अब सिर्फ टेक्स्ट मैटर ही काफी नही,ग्राफिक्स और म्यूजिक भी सन्देश का हिस्सा बन्ने लगे हैं.पर यह एम् एम् एस और बिगडा तो 'एम् एम् एस काण्ड' जैसे शब्द भी हमारे परिभाषावली का हिस्सा बन गए. भावना व्यक्त करने के अलावा अब हम देश का बेजोड़ गवैया और डांसर तय करने में भी इसका प्रयोग करने लगें हैं.इसके समर्थकों का तो यहाँ तक मानना है कि देश के आम चुनाव भी इसी के जरिए हो जाएँ तो बेहतर.निष्क्रिय और सुस्त पड़ते समाज की फिलहाल कमोवेश सोच तो यही है.जी हाँ,एस ऍम एस के साथ साथ भाषा ही नही बल्कि रिश्ते और सामाजिक सक्रियता भी सिकुड़कर छोटे होते जा रहे है पर तकनीक के इस दौर में रिश्तों और भावनाओं के बारे में लोग कम ही सोचते हैं पर आप एक बार जरूर सोचियेगा.
(२९ अगस्त को आई नेक्स्ट में प्रकाशित).http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=8/29/2009&editioncode=1&pageno=16#

Thursday, August 13, 2009

मस्ती की पाठशाला....

आजकल सारा समय गाने सुनने में बीतता है.नही नही,मैं छुट्टिया नही मना रहा,जॉब ही कुछ ऐसी है,सोचने बैठा कि इस अंतररास्ट्रीय युवा दिवस को व्यावसायिक तरीके से रेडियो पर कैसे मनाया जाए?कुछ फ़िल्मी गानों का चुनाव करना था जो युवाओं का प्रतिनिधित्व करता हो.किसी ने रंग दे बसंती के 'मस्ती के पाठशाला' गाने का नाम सुझाया.गीत को सुनने बैठा तो लगा कि वाकई यह आज के युवाओं का दर्शन है.गाने में एक लाइन है.'टल्ली होकर गिरने से हमने सीखी ग्रविटी'...यानी आज का युवा ग्रविटी के नियमों को समझने के लिए किताबों और फिजिक्स के क्लास में सर नही खपाता.उसके पास दूसरे ऑप्शन्स भी हैं.भारत में राष्ट्रीय युवा दिवस तो वैसे १२ जनवरी को स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन पर मनाते हैं पर हम भारतीय विश्व बंधुत्व और ग्लोबल विलेज की भावना से प्रेरित हैं तो १२ अगस्त को अंतरास्ट्रीय युवा दिवस मनाने में हर्जा क्या है?

वस्तुतः युवा दिवस मनाने का उद्देश्य है कि युवाओं की समस्याओं पर विचार किया जाए पर युवाओं की वास्तविक समस्याएँ क्या हैं?इस विषय में मैंने जब अपने युवा मित्रों से पूछा तो उनके जवाब अलग अलग मिले.किसी का कहना था कि रेसेशन के चलते रोजगार की कमी एक बहुत बड़ी समस्या है.कोई नशाखोरी और गैरजिम्मेदारी को बड़ी समस्या मान रहा था.पर दूबे जी की माने तो युवाओं की सबसे बड़ी समस्या गर्लफ्रेंड है.चूंकि उनका नया नया ब्रेकअप हुआ है तो मै समझ सकता था पर वो वहीँ शांत नही हुए.कहने लगे कि जिनके पास गर्ल फ्रेंड है,उनकी समस्या यह है कि वो उनसे ठीक से मिल नही पाते,क्यों?अरे प्यार का दुश्मन तो सारा ज़माना है .और जिनके पास गर्लफ्रेंड नही हैं वो उनको देख देख कर कुढ़ते रहते हैं,जिनके पास यह नेमत है.यानी देश का विकास सिर्फ इसलिए रुका है कि युवाओं का ध्यान अपने काम पर नही बल्कि गर्लफ्रेंड की समस्या पर है.पाश्चात्य देश शायद इसी वजह से तरक्की कर रहे हैं.

पर मैं जरा युवा शब्द के अर्थ को लेकर भ्रमित हूँ.युवा कौन हैं?क्या मैं युवा हूँ जो दिन भर के जॉब के बाद मनोरंजन के अन्य विकल्पों के बारे में भी सोचता है?या युवा वो है जो मल्टीनेशनल के कपडे पहनता है,वीकेंड्स को पब और डिस्को जाता है और कल की चिंता नही करता.राहुल गाँधी ने एक बार कहा था कि मनमोहन सिंह युवा हैं क्योंकि वो आगे,भविष्य की ओर देखते हैं..बॉलीवुड का एक्साम्पल लें तो देव आनंद भी युवा हैं क्योंकि ८५ साल की आयु में वो आज भी फिल्में बना रहे हैं.चलिए इस बहस को सिर्फ इस बात से समाप्त किया जा सकता है कि किसी का तन नही मन जवान होना चाहिए.लेकिन जिनका तन भी जवान है उनका क्या? भारत की अधिकाँश आबादी युवाओं की है पर युवाओं की सामाजिक भागेदारी ऍम बी ए करके ऊंची सलरी उठाने,विदेश में जॉब पाने और राजनीतिज्ञों को गालियाँ देने में है.पिछले दिनों खबर आई कि देश के ३० युवा सांसद सेना में भरती होना चाहते हैं .खबर सकारात्मक थी पर साथ में वो यह भी चाहते हैं कि दो महीनो की होने वाली ट्रेनिंग मात्र एक महीने हो.जाहिर है कि ट्रेनिंग करने के बाद वो सीमाओं पर जाकर लडेंगे तो नही.यानी सेना का रुतबा और ग्लैमोर तो चाहिए पर झंझट नही.

युवा बदल रहा है.बदले भी क्यों न..बदलाव,विकास और आगे बढ़ने के लिए जरूरी हैं.पर यह बदलाव जरा हट के है.आज का युवा ज्यादा मतीरिअलिस्टिक हो गया है.उसे ज्यादा से ज्यादा पैसा और सफलता कम समय में चाहिए क्योंकि उनका मानना है कि अगर जवानी ही नही रही तो इन भौतिक सुखों का लाभ कब उठाएँगे.यानी आज का युवा जवानी काम करके बिताने और बुढापा आराम से गुजारने वाले पुराने कांसेप्ट पर नही चलता.उसे ज्यादा का इरादा है.पर कितने ज्यादा का इरादा इसके सीमाओं का निर्धारण आज के युवा को ही करना है क्योंकि समाज गिव एन टेक की पॉलिसी पर चलता है.यानी समाज हमें जो देता है,उसके बदले हमें भी समाज को कुछ देना पड़ता है.और अगर सिर्फ अपने बारे में सोचने में युवा ने समाज को भुला दिया तो समाज भी एक दिन उसे भुला देगा.
(१२ अगस्त को आई-नेक्स्ट में प्रकाशित)

Wednesday, July 29, 2009

एक खबर उडी,उड़ के चली...


इस बार शुरुआत एक लघु कथा से..आदिदास और कालिदास दो भाई थे.जहाँ कालिदास बचपन में मूर्ख थे(जैसा कि हम सब जानते हैं) वहीँ आदिदास बचपन से ही चतुर प्रवृति का था.कालिदास जहाँ अपने आई. क्यू. लेबल की वजह से अध्यन अध्यापन से दूर रहे,वहीँ आदिदास पढाई लिखाई छोड़कर व्यापार आदि करने का मन बनाने लगा.समय बीतने पर,जहाँ वयस्क होने के बाद,कालिदास का झुकाव अध्यन और साहित्य सृजन की तरफ हो गया,वही आदिदास ने अपने व्यापार को फैलाने के उद्देश्य से 'जूतों' के निर्माण की एक कंपनी "आदिदास" डाली.व्यापार चल निकला और कालांतर में इसका नाम बदलकर 'आडीडास' हो गया.वर्तमान में कितने ही देशी और विदेशी खिलाडी इसके प्रोडक्ट को इनडोर्स करते हैं.

अरे नहीं,कृपया शांत रहे.उपरोक्त सारी कहानी काल्पनिक हैं.साहित्य प्रेमी बंधुओं,आपसे भी विनम्र क्षमा,आपका दिल दुखाने का जरा सा भी इरादा नही था.उपर लिखी कहानी मात्र यह बताने के लिए थी कि अगर अफवाह भी सही तरीके से उडाई जाए तो किस हद तक सही लगने लगती है.मान लीजिये,किसी न्यूज़ चैनल ने इसी विषय पर एक घंटे कि बिना सर पैर की स्टोरी चला दी होती तो शायद कितने ही लोग इस कहानी को सही मान बैठते.जी हाँ,कुछ यही हाल आजकल के खबरिया और मनोरंजन चैनल्स का है.आप घंटे भर की 'सो कॉल्ड' स्पेशल रिपोर्ट पूरी देख डालें,अंत में आप खुद को ठगा हुआ महसूस करते हुए यही पाएंगे की सारी खबर अफवाहों पर आधारित हैं.खबरिया चैनलों की दलील यह है कि वो तो सिर्फ जनता को आगाह करना चाहते हैं पर जनता के साथ क्या होता है इसका एक एक्साम्पल देता हूँ.याद है जब यह अफवाह उडी थी कि लार्ज हैलोजन कोलाईडर मशीन के शुरू होते ही दुनिया खत्म हो जायेगी तो किसी युवा ने इस डर के मारे आत्महत्या कर ली थी.

मेरे सीनियर आलोक जी बताते हैं कि इन चैनल्स को वर्तमान में टी आर पी की लडाई में सिर्फ कसाब और तालिबान का ही सहारा है.सही भी है,पिछले साल भर में भले ही कई आतंकवादी घटनाओं को देश ने झेला है पर इन चैनलों की माने तो देश में जीने के लिए एक दिन भी सुरक्षित नही.पाकिस्तान सीमा पर थोडी गहमा गहमी बढती है तो इन चैनलों की दया से ऐसा लगता है कि मानो कल ही एटॉमिक वार छिड़ने वाला है.चलिए,सिर्फ खबरिया चैनलों को दोष नही देंगे.अफवाह तो ऐसी चीज है जो कहीं भी उडाई जा सकती है.सिर्फ आपकी उस अफवाह में लोगों की दिलचस्पी होनी चाहिए.अफवाह यह उड़ती है कि राखी सावंत शादी नही करेंगी तो परेशान मोहल्ले का पुत्तन हो जाता है.राजू और बिरजू में तो इस बात को लेकर लडाई हो गयी कि अपनी सगाई में सानिया मिर्सा ने असल में कितने मूल्य की अंगूठी पहनी थी.शायद सूचना क्रांति के द्वारा संपूर्ण विश्व को ग्लोबल विलेज बनाने की कल्पना यहाँ पर तो सही होते दिखाई देती है.


ऐसा नही कि अफवाहों से सिर्फ नुक्सान ही है.कभी कभी यह फैयदे के लिए भी उडाये जाते है.बीते समय की अभिनेत्री वैजयंतीमाला ने एक बार कहा था की संगम फिल्म के प्रोमोशन के लिए राजकपूर ने जानबूझकर अपने और उनके रोमांस की अफवाह उडाई थी जिसका उन्हें फैयदा भी मिला.हमारा शेयर बाज़ार भी अफवाहों के चलते कई बार ऊपर नीचे होता रहता है.याद है,जब वीरन्द्र सहवाग ने अपनी चमक नयी नयी बिखेनी शुरू की थी तो अफवाह उडी कि वो प्रतिदिन चार लीटर दूध का सेवन करते हैं जिसका खंडन उन्होंने बाद में खुद किया.अफवाहों का एक अलग पहलु भी है.येही अफवाह जब मोहल्ले की किसी शादी योग्य लड़की के लिए फैलती है तो उसकी शादी होना मुश्किल हो जाती है.कहते थे कि इराक के पास विनाशकारी हतियार हैं पर इराक के बर्बाद होने के बाद भी आज तक उन्हें ढूँढा न जा सका.आखिर में कहना सिर्फ इतना है कि अफवाहों के मज़े लीजिये पर उनको न खुद पर और ना ही समाज में हावी न होने दीजिये क्योंकि अफवाह सभी के लिए फैय्देमंद नही होते और न सबके लिए यह कहा जा सकता है कि 'बदनाम होंगे तो क्या नाम नही होगा.
(२९ जुलाई को i-next में प्रकाशित)

Friday, July 10, 2009

सिर्फ बेफिक्री काफी नहीं...

कल यूं ही एक विज्ञापन पर ऩजर पड़ गयी, जो अपने ग्राहकों को ऐश कर, बे फिकर का सन्देश दे रहा था. यह कंडोम का विज्ञापन था. एक दूजा इसी तरह का विज्ञापन इग्नाइट द पैशन का संदेश देता है. कुछ तो नए फ्लेवर्स का झांसा भी दे रहे हैं. पर इनका प्राइमरी काम प्रेगनेंसी रोकना या एड्स से रोकथाम है यह जानकारी इनके पैक्स या विज्ञापन में इतने छोटे अक्षरों में लिखी होती है कि शायद इन्हें पढ़ने के लिए मैग्नीफायर की जरूरत पड़े.

कितना बदल गया है न हमारा ऩजरिया. हमारे समाज में सेक्स हमेशा से वंश बढ़ाने का माध्यम समझा गया है. यह अलग बात है कि यह मनोरंजन और शारीरिक जरूरतों का भी माध्यम है पर शायद ही हमने पब्लिकली इस बात को एक्सेप्ट किया हो. लेकिन ये विज्ञापन हमारी बदलती सोच को दिखाते हैं. जी हां, फैमिली प्लानिंग के इन तरीकों को हम अच्छे से समझ तो गए हैं पर हमारे समझ की दिशा ज़रा बदल सी जरूर गयी है. कुछ सर्वे कहते हैं कि इमर्जेसी कंट्रासेप्टिव पिल्स का उपयोग ज्यादातर कॉलेज गोइंग युवा ही कर रहे हैं.

परिवार नियोजन के तरीकों की बात चल ही रही है तो आपको याद ही होगा कि हम आज (11 जुलाई) विश्व जनसंख्या दिवस मना रहे हैं. इस दिन हम जनसंख्या और उससे रिलेटेड प्रॉब्लम्स पर विचार करते हैं. जहां तक भारत की बात है तो पिछले कुछ सालों में इस प्रॉब्लम के प्रति लोगों के ऩजरिए में चेंज तो आया ही है, यह मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता. घटती जनसंख्या वृद्धि दर इस बात का सबूत है कि अब हममें से अधिकांश लोग हम दो हमारे एक की ओर बढ़ चले हैं. धारा 377 के खत्म होने की बात न ही करें तो ठीक. वो खास लोग तो हम दो और हमारे एक भी नहीं की ओर आमादा हैं, जिससे हमारे धर्मगुरू भी बहुत चिंतित हैं.

हमारे भारत में आबादी की कई वजहें हो सकती हैं. पहली तो यह कि यहां बच्चे, बुजुर्गो के आशीर्वाद और ऊपर वाले की देन हैं. किसी नव विवाहित महिला को दूधो नहाओ, पूतो फलो का आशीर्वाद मिलते नहीं देखा है क्या? कुछ बेचारों की दूसरी समस्या है. मेरे एक जानने वाले श्रीमान जी के 10 बच्चे हैं. कहने लगे कि उनकी मिल्कियत संभालने वाला कोई लड़का न था सो एक लड़के की उम्मीद में नौ रीटेक ले लिए. कुछ लोगों को घर में लक्ष्मी की दरकार थी. सो बढ़ गया परिवार. खैर, यह सब अब अपनी पुरानी बाते हैं. अब हम जागरूक हैं. हमें परिवार नियोजन के तरीकों के बारे में पता है. टीवी पर बढ़ते कंडोम्स और कंट्रासेप्टिव पिल्स के विज्ञापन इसके उदाहरण हैं. याद है दूरदर्शन का वह दौर जब किसी कार्यक्रम के बीच वो कंडोम का चिर-परिचित विज्ञापन जिसमें बरसात फिल्म का प्यार हुआ इकरार हुआ गीत बजता था तो हम बगलें झांकने को मजबूर हो जाते थे. आज ऐसा नहीं हैं.

बढ़ती जनसंख्या ने हमारी प्रॉब्लम्स को बढ़ाया ही है. कहते हैं, पानी, अन्न, पेट्रोल जैसे जरूरी चीजें अब सीमित रह गयी हैं. बढ़ती वैश्रि्वक मंदी और बेरोजगारी भी इसी का नतीजा है. ग्लोबल वॉर्मिग, तरह-तरह के पॉल्यूशन, जैव विविधता में कमी, आज हमें चिंतित कर रहे हैं. आइये, आज के दिन हम अपनी प्रॉब्लम्स को समझें और उनके निदान के लिए कुछ सार्थक करें क्योंकि भले ही हम हम सब एक हैं में भरोसा ना करते हों पर हम साथ-साथ हैं में जरूर यकीन रखते हैं. जागने के लिए और अपनी जिम्मेदारियों को समझने के लिए आज का दिन काफी इंपॉर्टेट है. अगर चीजों को देख रहे हैं, समझ रहे हैं तो इनीशिएटिव लेने के बारे में भी हमें ही सोचना होगा. नहीं क्या?
(११ जुलाई को i-next में प्रकाशित)

Friday, June 26, 2009

थोडी थोडी पिया करो...

(२६ जून को i-next में प्रकाशित)
टाईटल से ऐसा बिलकुल न समझें कि मै शराब पीने को प्रमोट कर रहा हूँ.किसी ग़ज़ल की यह लाइंस तो मुझे तब याद आयीं जब मैंने कुछ दिनों पहले न्यूज़पेपर में एक खबर पढ़ी.खबर थी कि शराब के नशे में हमारे कुछ युवा भाइयों ने किसी पुलिस ऑफिसर को गाडी से कुचलने की कोशिश की.हर कोशिशें कामयाब नही होती.वो पकडे गए और उनकी अच्छे से मरम्मत हुई.मै सोचने लगा कि कमाल की चीज है यह शराब जिसे पीने के बाद इंसान खाकी से भी टकराने में गुरेंज नही करता.एक बात और,शराब पीने के बाद इंसान के कांफिडेंस को पता नही क्या हो जाता है?पीने के बाद अक्सर लोग कहते हैं."गाडी मै चलाऊंगा."शायद अपने आप को प्रूव करने का इससे अच्छा मौका उन्हें और कोई नही दिखाई देता होगा.
लेकिन कभी सोचा है कि "गाडी मैं चलाऊंगा" के बाद क्या हुआ?The Department of Road Transport and Highway के जरा इन आकडों पे नज़र डालिए.१९७० mein कुल ११४१०० रोड accidents हुए और २००३ तक सड़क दुर्घटनाओं की यह संख्या बढ़कर ४०६७२६ हो गयी.अब आप सोच रहे होंगे की क्या बढती दुर्घटनाओं की वजह क्या सिर्फ शराब थी?एक सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि भारत में प्रतिदिन शराब पीकर दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या करीब २७० है और करीब ५००० लोग serious injuries का शिकार हो जाते हैं.
वैसे तो हम 26 जून 'विश्व मादक द्रव्य निषेध दिवस' या 'मद्यपान निषेध दिवस' के रूप में मना रहे हैं पर शराब और उसके बुराइयों के बारे में बात करने के लिए किसी ख़ास दिन का होना जरूरी नही.शराब पीना स्वास्थ के लिए हानिकारक है,यह बात तो हम सभी जानते हैं.लेकिन शराब पीकर गाडी चलाके हम दूसरो के ज़िन्दगी के लिए भी परेशानी का सबब बन जाते हैं.यह शराब का बिलकुल नया साइड इफेक्ट है.सो आज सिर्फ इस बारे में ही बात करेंगे.वैसे भी आजकल हम शराब पीकर गाडी चलाने के अलावा टेक्स्ट मेसेज करते हुए या मोबाइल पर बात करते हुए भी एक्सीडेंट करने लगे हैं. .वैसे भी आजकल अधिकतर यूथ शराब पीने को एक glamorous ट्रेंड के तौर पर देखने लगा है.आज का यूथ यह मानता है कि अगर वो नही पिएगा तो उसे लोग बैकवर्ड या ऑर्थोडॉक्स समझेंगे.हालांकि आज भी शराब एक सामाजिक बुराई के तौर पे देखी जाती है पर इसकी स्वीकार्यता बढ़ी है..इससे इंकार नही किया जा सकता.

मेरे एक अंकल जी ट्रैफिक पुलिस में है.मैंने उनसे कहा कि वो और उनका डिपार्टमेन्ट इन दुर्घटनाओं को रोकने के लिए कुछ कड़े कदम क्यों नही उठाता?कहने लगे कि उसमें भी बेचारी सामान्य जनता ही मारी जायेगी.उन लोगों का क्या जो डंके की चोट पर ऐसा करते हैं और कानून और प्रशाशन को उन्हें सजा दिलाने में नाकों चने चबाना पड़ता है.कहने पर उन्होंने bmw काण्ड और सलमान खान के किस्से की याद दिला दी.वैसे भी जब से हमारे समाज और newpapers में page ३ पारटीस को सम्मान और glamour की दृष्टि से देखा जाने लगा है,तब से पीकर चलाने वालों को कोई ख़ास परेशानी नही होती.अब आप कहेंगे कि पेज ३ के पानो पे दिखने वाले हस्तियों के साथ उनके ड्राईवर कि तस्वीर थोड़े ही छपेगी जो बाद में उन्हें सुरक्षित घर पहुंचेंगे.पर इन पार्टियों में एक बार शामिल होकर देखिये...खुद बी खुद अस्लियात पता चल जायेगी.चलिए,अगर इन पर्तिएस में फिलहाल शरीक होने में कोई प्रोब्लम है तो कोई बात नही.पिछले कुछ सालों में हमारे आस पास में बहुत सारे बार्स और पब्स कि संख्या बढ़ी है..वहां जाकर आप देख सकते हैं.

एक टेक्स्ट मैसेज बहुत common है.if driving is prohibited after drinking..then why bars have parking venues? बात तो सही बिलकुल है.हाँ,मेरा निजी अनुभव एक बात और कहता हैं,पुलिस और प्रशाशन कभी पीकर गाडी चलाने वालों की चेकिंग बार्स या पब के आस पास नही करती.हो सकता है कि यह महज एक संयोग हो.पर यह हमें ही सोचा है कि क्या अपने जान के बारे में भी हम पुलिस के दबाव में आकर ही सोचेंगे? संस्कृत में एक सूक्ति है "अति सर्वत्र वर्ज्यते "यानी एक्सेस ऑफ़ अन्य्थिंग इस हार्मफुल.अगर आप फिल्मों कि भाषा समजते हों तो आपको एक गाना याद होगा."इश्क जब हद से पर हो जाए.ज़िन्दगी बेकरार हो जाए".इश्क करना है तो अपने स्टडीज से कीजिये,अपने उज्जवल भविष्य से कीजिये,अपने दोस्तों से कीजिये,ठीक है.पता है,आपके पास गर्ल फ्रेंड भी है .पर शराब से इतना इश्क न कीजिये .क्योंकि इसे बेचने वाले companiesकी जिम्मेदारी सिर्फ वैधानिक चेतावनी लिखकर खत्म हो जाती है.समझना तो हमें यह है कि वो कुछ मिली शराब और उसका क्षणिक नशा हमारे लिए जयादा इमपोरटेंट है या हमारी ज़िन्दगी.


Monday, June 15, 2009

हर आवाज.. एक कहानी कहती है.


हर आवाज में एक दास्तां छिपी रहती है..
गौर से सुनो जरा इसको.
यह आवाज एक कहानी भी कहती है..
ऐसी ही,कुछ कहानियां सुनी हैं.
दीवार के इस ओर से..
क्योंकि,दीवार का दूसरा ओर,किसी और का है...
दीवार के दूसरी ओर उसने,
ज़िन्दगी को नयी शुरुआत दी है.
उस ओर आजकल काफी शान्ति रहती है..
कभी पकवानों की खुशबू तो कभी,
बर्तनों के खड़कने की आवाज आती हैं ,
देर रातों में,दीवान की चर्र-चर्र.
उस नए शुरुआत की तस्वीर लाती हैं.


दिन बदले,माह बदले,दीवार ज्यों की त्यों है..
बदल गयी हैं,उसके पीछे की कहानियाँ.
देर रातों में अब भी कुछ आवाजें आती हैं..
यह दीवान की चर्र-चर्र नही..
किसी नवजात के जागने की आहट है...
खीजे पिता के चीखने का शोर आता है..
माँ लेकिन जग रही है,यह राहत है..
यह भी एक नयी शुरुआत है..
माँ शायद यही सोच कर सब सहती है..
गौर से सुनो हर आवाज,यह एक कहानी कहती है.



दीवार के दूसरी ओर,अब तीन लोग रहते हैं..
यही परिवार है..जीवन का आधार है..
ऐसा आवाजें नही..लोग कहते हैं..
आवाज की सुनकर क्या करोगे,
वो अलग ही कहानी बयां करते हैं..
आजकल पकवानों की खुशबू नही आती.
देर रातों में दीवान शांत पड़ा है..
कभी कभी पुरुषों के चीखने की आवाज,
खाने में नमक ज्यादा होने की तस्दीक़ करती है.
इस तरह के झगडे,अब बहुत आम बात हैं,
घर की स्त्री शायद, अब चाय बंनाने में भी डरती है.
दीवार के दूसरी ओर से अब
सिर्फ बाप बेटे की ही आवाज आती है.
कोई नही जानता,माँ आजकल कहाँ रहती है..
गौर से सुनो हर आवाज,यह एक कहानी कहती है.


दीवार भी शायद अब पुरानी हो चुकी है...
इसलिए आजकल आवाज साफ़ आती है.
होने वाली है दूसरी ओर एक और नयी शुरुआत,
शहनाई की आवाज,यह खबर लाती है..
फिजाओं में फिर से पकवानों की खुशबू है..
देर रातों में दीवान भी बोलने लगा है...
पर आजकल पुरुषों की आवाज नही आती है
महिलाओं के आपसी रिश्ते की खटास.
बर्तनों के गिरने की आवाज,साथ लाती है..
बूढी दीवार भी अब मानने लगी है कि..
हर आवाज में एक दास्तां छिपी होती है..
गौर से सुनो जरा इसको.
यह आवाज एक कहानी भी कहती है..

Saturday, May 30, 2009

बीडी बुझईले...

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सैफ्रन टेरर, जी नहीं, मैं उस मुद्दे के बारे में बिलकुल भी बात नहीं कर रहा, जो कुछदिनों पहले मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज का हिस्सा थी. मैं बात कर रहा हूं उस टेरर की जिससे हमारे घर, दफ्तर, शिक्षण संस्थान, गली, नुक्कड़, पब्लिक, टॉयलेट, लिफ्ट का कोना कुछ भी अछूता नहीं है. जी हां, पान मसाले और गुटखे की पीक से गहरे लाल-केसरिया रंग में रंगा वह चिर-परिचित आतंक, जिससे हम रोज रू-ब-रू तो होते हैं पर कुछ खास कर नहीं पाते. अब आप सोच रहे होंगे कि आज पान-मसाले व तम्बाकू सेवन पर बात करने की क्या जरूरत पड़ गयी? भई, कल 31 मई को हम व‌र्ल्ड नो टोबैको डे मनायेंगे. तो आज से ही सोचना पड़ेगा ना? वैसे भी इस मुद्दे पर बात करने की एक वजह और भी है. सोचिए तम्बाकू से हमारा कितना गहरा रिश्ता है. आप नहीं मानते, ठीक है जरा इन आंकड़ों पर ऩजर डालिए. भारत में करीब 120 मिलियन, स्मोकर्स हैं और करीब 10 लाख लोग हर साल तम्बाकू से संबंधित बीमारियों से मारे जाते हैं. भारत में स्मोकिंग करने वाला हर पांच में से एक इंसान तम्बाकू से होने वाले बीमारियों का शिकार होता है. दुनिया भर की बात करें तो हर 6 सेकेंड पर एक इंसान तम्बाकू की वजह से मारा जाता है.

वैसे इन आंकड़ों के बावजूद इसके समर्थकों की कमी नहीं है. ऐसे ही एक समर्थक मित्र का तर्क है कि उनकी हेल्थ है, वह इस बारे में सोचें या ना सोचें, किसी को क्या प्रॉब्लम है? अब उन्हें क्या पता कि अपनी इस आदत से हम अकसर दूसरों के लिए परेशानी का सबब बन जाते हैं. फिर चाहे वह हमारी फैमिली हो, दोस्त, सहयोगी या अनजान लोग. हर कोई कभी न कभी हमारी पैसिव स्मोकिंग का शिकार होता है, जो डायरेक्ट स्मोकिंग जितनी ही नुकसानदायक है. वैसे भी यह स्मोकिंग हमारे लिए हार्ट डिजीजेज, तरह-तरह के कैंसर, सेक्स संबंधित समस्यायें, अस्थमा और न जाने क्या-क्या बीमारियां लेकर आती हैं. मेरे मित्र का तर्क यहीं खत्म नहीं हुआ. कहने लगा कि यह धूम्रपान उद्योग कितने ही लोगों को रोजगार देता है. सच्चाई तो यह है कि इस इंडस्ट्री से जुड़े मजदूर हमेशा से गरीब थे और रहेंगे. असली फायदा तो इसके मालिकों को है. फिर भी सिगरेट पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए.

वैसे रियल लाइफ के अलावा रील लाइफ में भी स्मोकिंग का बोलबाला रहा है. अधिकांश फिल्मी हीरोज सिल्वर स्क्रीन पर धुएं का छल्ला उड़ाते दिखाई देते हैं. फिर वह ब्लैक एंड व्हाइट जमाने के देव आनन्द हों या आज के शाहरुख खान. एक रिपोर्ट कहती है कि 52 प्रतिशत बच्चे अपना पहला कश इन्हीं सितारों को देखकर भरते हैं. गाहे-बगाहे हमारे गानों ने भी दम मारो दम, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.. सिगरेट के धुएं का छल्ला बनाके.. बीड़ी जलइले.. से मॉरल सपोर्ट दिया है. कुछ लोग कुतर्क दे सकते हैं कि बीड़ी हर्बल है शायद तभी गुलजार साहब ने इसे जिगर से जलाने की बात कही थी. पर सच्चाई तो यह है कि बीड़ी भी उतनी ही नुकसान दायक है, जितनी सिगरेट. इससे निकलने वाले कार्बन मोनो ऑक्साइड और अन्य जहरीले रसायनों की मात्रा सिगरेट से कहीं ज्यादा होती हैं.

अब क्या कहें, इन विज्ञापन कंपनियों को जो इसके सेवन को शाही अंदाज, शाही स्वाद, बड़े लोगों की बड़ी पसंद बताते हैं. सरकार ने एक आदेश में सिगरेट के पैकेट पर 40 परसेंट से ज्यादा हिस्से पर वैधानिक चेतावनी लिखने का आदेश दिया है. पर क्या यह कदम तंबाकू निषेध के लिए काफी है? हमारे देश की एक बहुत बड़ी खासियत है कि हमारे स्वास्थ्य और सुरक्षा के बारे में हमसे ज्यादा सरकार और प्रशासन को चिंता करनी पड़ती है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या हैलमेट पहनकर गाड़ी न चलाने, सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान व मद्यपान करके दूसरों के लिए समस्या खड़ी करने के लिए क्या सरकार जुर्माना लेती? आप धूम्रपान प्रेमियों को कितना भी मना कर लीजिए पर वह मानेंगे नहीं. इसलिए धूम्रपान कानून को और कड़ा करने में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि कहीं न कहीं हमारा समाज बिन भय होए न प्रीत में अब भी भरोसा करती है.


Monday, May 25, 2009

खत्म हुआ क्रिकेट का दूसरा कर्मयुद्ध...


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कितना कुछ ख़ास रहा इस आई पी एल में.पिछले बार की चैम्पियन राजस्थान रायल्स इस बार सेमी फाईनल में भी जगह न बना सकी.पूरा  फाईनल 'बीयर' बनाम 'बिरयानी' बन कर रह गयी.जी हाँ,बीयर यानि माल्या साहब की रायल चैलेंजर्स  और बिरयानी यानी हैदराबादी डेकन चारजर्स.पिछले साल की अंकतालिका में सबसे फिसड्डी दो टीमों ने इस बार फाईनल में जगह बनाई और रोमांचक मुकाबले में चारजर्स क्रिकेट के इस कर्मयुद्ध का विजेता बना.कुछ मामलों में यह आई पी एल पिछली बार से थोडा अलग रहा.प्रत्येक दस ओवेर्स के बाद 'रणनिति ब्रेक' की अवधारणा इस आई पी एल का हिस्सा बनी.बहुत सारे लोगों ने तो इसे विज्ञापन बाज़ी का नया बहाना बताया.

२०-२० क्रिकेट की बात हो और चीयरलीडर्स की बात न हो तो कैसे चलेगा?इस बार देश के संस्कृति और सभ्यता के सारोकारों का शायद इस तरफ ध्यान नही गया.बहाना यह हो सकता है कि इस बार का आई पी एल तो दूसरे देश में हुआ.शायद हमारी संस्कृति इन चीयर बालाओं को टेलीवीजन की स्क्रीन पर देखकर नही ख़राब होती.इस  बार हरभजन श्रीसंथ विवाद जैसा तो कुछ भी न हुआ पर खिलाड़ियों के बीच गरमा गर्मी और बहस खूब चली चाहे वो एक ही देश के खिलाडी क्यों न हों.शायद टीम भावना और मित्रता पर कारपोरेट क्रिकेट और पैसा भारी पड़ रहा है.हैडेन श्रीसंथ की पुरानी रंजिश यहाँ भी नज़र आई और हैडेन ने तो श्रीसंथ को 'ओवर रेटेड' गेंदबाज़ करार दे डाला.धोनी का जादू थोडा फीका तो पड़ने ही लगा है.उनकी टीम चेन्नई इस बार सेमी फाईनल से ही बाहर हो गयी जबकि उन्हें सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा था.यह आई पी एल युवराज और रोहित शर्मा के हैट्रिक और मनीष पाण्डेय सरीखे अनजाने से बल्लेबाज़ के शतक का भी गवाह बना.

विवाद और इस आयोजन का तो रिश्ता जगजाहिर है.इस बार भी कई विवाद चर्चाओं में रहे पर मीडिया ने उसपर ज्यादा ध्यान नही दिया.जेसी राईडर शराब के नशे में  सुरक्षा कर्मियों से भीड़ गए तो टीम पंजाब के मालिक और अभिनेत्री प्रीति जिंटा के बॉयफ्रेंड नेस वाडिया छेड़खानी के मामले में पिटाई खाते हुए बचे.विवादों के लिए इस बार तालिका में अव्वल रही शाहरुख़ खान की टीम कोलकाता नाईट राईडर्स.पहले देश के सफलतम कप्तानों में से एक सौरभ गांगुली को कप्तानी से हटाया गया.क्या विडंबना है?कोलकाता के नाम से शुरू इस टीम का मुखिया कोई विदेशी खिलाडी बन गया,वो भी एक विदेशी कोच के कहने पर.टीम का कैप्टेन मकुलम को बना दिया गया.पूर्व क्रिकेट खिलाडी अजय जडेजा ने इस बात का खुलासा किया कि उनके पास इस बात के पक्के सबूत हैं कि कोलकाता टीम में नस्लीय भेद भाव हो रहे हैं.शायद इसी लिए कोलकाता टीम का मनोबल बुरी तरह से गिरा हुआ है और टीम करीब करीब सारे मैच हार चुकी है.शाहरुख़ लगातार हो रही हार से खीजकर वापस देश लौटचुके थे और उनका कहना है कि जब उनकी टीम स्वदेश लौटेगी तो वो टीम से इस बाबत बात करेंगे.शाहरुख़ शायद नही समझ पा रहे कि उनसे क्या गलती हुई?गलतियाँ चाहे जो हुई हों पर शाहरुख़ को यह समझना चाहिए कि कोलकाता की टीम तभी कोलकाता की कहलाएगी जब उसमे कोलकाता की आत्मा मौजूद हो,पर यहाँ सब कुछ होता है क्योंकि यह इंडियन प्रीमीयर लीग है.

कुल  मिलाके  आई पी एल-२ पूरी तरह हिट रहा.इसके सफलता से उत्साहित होकर ललित मोदी ने इसके साल में  दो बार आयोजन की बात कही है,हाँ एक बात की तो तारीफ़ करनी होगी.दो विदेशी कोच,दिल्ली के शेफर्ड और कोलकाता के बुकनान की मांग कि टीम में ४ से ज्यादा विदेशी खिलाड़ियों को शामिल किया जाए,को मोदी एंड कमेटी ने अस्वीकार कर दिया.वजह चाहे जो भी रही हो पर एक आम भारतीय होने के नाते हम सब ऐसा जरूर चाहेंगे कि आई पी एल में ज्यादा से ज्याद भारतीय खिलाडियों को मौका मिले क्योंकि यह इंडियन प्रीमिअर लीग है,'इंटरनैशनल' प्रीमिअर लीग नही.विदेशी खिलाडी सिर्फ ग्लेमर का तड़का लगाने तक की भूमिका तक सीमित रहें तो ही अच्छा है.