Wednesday, July 29, 2009

एक खबर उडी,उड़ के चली...


इस बार शुरुआत एक लघु कथा से..आदिदास और कालिदास दो भाई थे.जहाँ कालिदास बचपन में मूर्ख थे(जैसा कि हम सब जानते हैं) वहीँ आदिदास बचपन से ही चतुर प्रवृति का था.कालिदास जहाँ अपने आई. क्यू. लेबल की वजह से अध्यन अध्यापन से दूर रहे,वहीँ आदिदास पढाई लिखाई छोड़कर व्यापार आदि करने का मन बनाने लगा.समय बीतने पर,जहाँ वयस्क होने के बाद,कालिदास का झुकाव अध्यन और साहित्य सृजन की तरफ हो गया,वही आदिदास ने अपने व्यापार को फैलाने के उद्देश्य से 'जूतों' के निर्माण की एक कंपनी "आदिदास" डाली.व्यापार चल निकला और कालांतर में इसका नाम बदलकर 'आडीडास' हो गया.वर्तमान में कितने ही देशी और विदेशी खिलाडी इसके प्रोडक्ट को इनडोर्स करते हैं.

अरे नहीं,कृपया शांत रहे.उपरोक्त सारी कहानी काल्पनिक हैं.साहित्य प्रेमी बंधुओं,आपसे भी विनम्र क्षमा,आपका दिल दुखाने का जरा सा भी इरादा नही था.उपर लिखी कहानी मात्र यह बताने के लिए थी कि अगर अफवाह भी सही तरीके से उडाई जाए तो किस हद तक सही लगने लगती है.मान लीजिये,किसी न्यूज़ चैनल ने इसी विषय पर एक घंटे कि बिना सर पैर की स्टोरी चला दी होती तो शायद कितने ही लोग इस कहानी को सही मान बैठते.जी हाँ,कुछ यही हाल आजकल के खबरिया और मनोरंजन चैनल्स का है.आप घंटे भर की 'सो कॉल्ड' स्पेशल रिपोर्ट पूरी देख डालें,अंत में आप खुद को ठगा हुआ महसूस करते हुए यही पाएंगे की सारी खबर अफवाहों पर आधारित हैं.खबरिया चैनलों की दलील यह है कि वो तो सिर्फ जनता को आगाह करना चाहते हैं पर जनता के साथ क्या होता है इसका एक एक्साम्पल देता हूँ.याद है जब यह अफवाह उडी थी कि लार्ज हैलोजन कोलाईडर मशीन के शुरू होते ही दुनिया खत्म हो जायेगी तो किसी युवा ने इस डर के मारे आत्महत्या कर ली थी.

मेरे सीनियर आलोक जी बताते हैं कि इन चैनल्स को वर्तमान में टी आर पी की लडाई में सिर्फ कसाब और तालिबान का ही सहारा है.सही भी है,पिछले साल भर में भले ही कई आतंकवादी घटनाओं को देश ने झेला है पर इन चैनलों की माने तो देश में जीने के लिए एक दिन भी सुरक्षित नही.पाकिस्तान सीमा पर थोडी गहमा गहमी बढती है तो इन चैनलों की दया से ऐसा लगता है कि मानो कल ही एटॉमिक वार छिड़ने वाला है.चलिए,सिर्फ खबरिया चैनलों को दोष नही देंगे.अफवाह तो ऐसी चीज है जो कहीं भी उडाई जा सकती है.सिर्फ आपकी उस अफवाह में लोगों की दिलचस्पी होनी चाहिए.अफवाह यह उड़ती है कि राखी सावंत शादी नही करेंगी तो परेशान मोहल्ले का पुत्तन हो जाता है.राजू और बिरजू में तो इस बात को लेकर लडाई हो गयी कि अपनी सगाई में सानिया मिर्सा ने असल में कितने मूल्य की अंगूठी पहनी थी.शायद सूचना क्रांति के द्वारा संपूर्ण विश्व को ग्लोबल विलेज बनाने की कल्पना यहाँ पर तो सही होते दिखाई देती है.


ऐसा नही कि अफवाहों से सिर्फ नुक्सान ही है.कभी कभी यह फैयदे के लिए भी उडाये जाते है.बीते समय की अभिनेत्री वैजयंतीमाला ने एक बार कहा था की संगम फिल्म के प्रोमोशन के लिए राजकपूर ने जानबूझकर अपने और उनके रोमांस की अफवाह उडाई थी जिसका उन्हें फैयदा भी मिला.हमारा शेयर बाज़ार भी अफवाहों के चलते कई बार ऊपर नीचे होता रहता है.याद है,जब वीरन्द्र सहवाग ने अपनी चमक नयी नयी बिखेनी शुरू की थी तो अफवाह उडी कि वो प्रतिदिन चार लीटर दूध का सेवन करते हैं जिसका खंडन उन्होंने बाद में खुद किया.अफवाहों का एक अलग पहलु भी है.येही अफवाह जब मोहल्ले की किसी शादी योग्य लड़की के लिए फैलती है तो उसकी शादी होना मुश्किल हो जाती है.कहते थे कि इराक के पास विनाशकारी हतियार हैं पर इराक के बर्बाद होने के बाद भी आज तक उन्हें ढूँढा न जा सका.आखिर में कहना सिर्फ इतना है कि अफवाहों के मज़े लीजिये पर उनको न खुद पर और ना ही समाज में हावी न होने दीजिये क्योंकि अफवाह सभी के लिए फैय्देमंद नही होते और न सबके लिए यह कहा जा सकता है कि 'बदनाम होंगे तो क्या नाम नही होगा.
(२९ जुलाई को i-next में प्रकाशित)

Friday, July 10, 2009

सिर्फ बेफिक्री काफी नहीं...

कल यूं ही एक विज्ञापन पर ऩजर पड़ गयी, जो अपने ग्राहकों को ऐश कर, बे फिकर का सन्देश दे रहा था. यह कंडोम का विज्ञापन था. एक दूजा इसी तरह का विज्ञापन इग्नाइट द पैशन का संदेश देता है. कुछ तो नए फ्लेवर्स का झांसा भी दे रहे हैं. पर इनका प्राइमरी काम प्रेगनेंसी रोकना या एड्स से रोकथाम है यह जानकारी इनके पैक्स या विज्ञापन में इतने छोटे अक्षरों में लिखी होती है कि शायद इन्हें पढ़ने के लिए मैग्नीफायर की जरूरत पड़े.

कितना बदल गया है न हमारा ऩजरिया. हमारे समाज में सेक्स हमेशा से वंश बढ़ाने का माध्यम समझा गया है. यह अलग बात है कि यह मनोरंजन और शारीरिक जरूरतों का भी माध्यम है पर शायद ही हमने पब्लिकली इस बात को एक्सेप्ट किया हो. लेकिन ये विज्ञापन हमारी बदलती सोच को दिखाते हैं. जी हां, फैमिली प्लानिंग के इन तरीकों को हम अच्छे से समझ तो गए हैं पर हमारे समझ की दिशा ज़रा बदल सी जरूर गयी है. कुछ सर्वे कहते हैं कि इमर्जेसी कंट्रासेप्टिव पिल्स का उपयोग ज्यादातर कॉलेज गोइंग युवा ही कर रहे हैं.

परिवार नियोजन के तरीकों की बात चल ही रही है तो आपको याद ही होगा कि हम आज (11 जुलाई) विश्व जनसंख्या दिवस मना रहे हैं. इस दिन हम जनसंख्या और उससे रिलेटेड प्रॉब्लम्स पर विचार करते हैं. जहां तक भारत की बात है तो पिछले कुछ सालों में इस प्रॉब्लम के प्रति लोगों के ऩजरिए में चेंज तो आया ही है, यह मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता. घटती जनसंख्या वृद्धि दर इस बात का सबूत है कि अब हममें से अधिकांश लोग हम दो हमारे एक की ओर बढ़ चले हैं. धारा 377 के खत्म होने की बात न ही करें तो ठीक. वो खास लोग तो हम दो और हमारे एक भी नहीं की ओर आमादा हैं, जिससे हमारे धर्मगुरू भी बहुत चिंतित हैं.

हमारे भारत में आबादी की कई वजहें हो सकती हैं. पहली तो यह कि यहां बच्चे, बुजुर्गो के आशीर्वाद और ऊपर वाले की देन हैं. किसी नव विवाहित महिला को दूधो नहाओ, पूतो फलो का आशीर्वाद मिलते नहीं देखा है क्या? कुछ बेचारों की दूसरी समस्या है. मेरे एक जानने वाले श्रीमान जी के 10 बच्चे हैं. कहने लगे कि उनकी मिल्कियत संभालने वाला कोई लड़का न था सो एक लड़के की उम्मीद में नौ रीटेक ले लिए. कुछ लोगों को घर में लक्ष्मी की दरकार थी. सो बढ़ गया परिवार. खैर, यह सब अब अपनी पुरानी बाते हैं. अब हम जागरूक हैं. हमें परिवार नियोजन के तरीकों के बारे में पता है. टीवी पर बढ़ते कंडोम्स और कंट्रासेप्टिव पिल्स के विज्ञापन इसके उदाहरण हैं. याद है दूरदर्शन का वह दौर जब किसी कार्यक्रम के बीच वो कंडोम का चिर-परिचित विज्ञापन जिसमें बरसात फिल्म का प्यार हुआ इकरार हुआ गीत बजता था तो हम बगलें झांकने को मजबूर हो जाते थे. आज ऐसा नहीं हैं.

बढ़ती जनसंख्या ने हमारी प्रॉब्लम्स को बढ़ाया ही है. कहते हैं, पानी, अन्न, पेट्रोल जैसे जरूरी चीजें अब सीमित रह गयी हैं. बढ़ती वैश्रि्वक मंदी और बेरोजगारी भी इसी का नतीजा है. ग्लोबल वॉर्मिग, तरह-तरह के पॉल्यूशन, जैव विविधता में कमी, आज हमें चिंतित कर रहे हैं. आइये, आज के दिन हम अपनी प्रॉब्लम्स को समझें और उनके निदान के लिए कुछ सार्थक करें क्योंकि भले ही हम हम सब एक हैं में भरोसा ना करते हों पर हम साथ-साथ हैं में जरूर यकीन रखते हैं. जागने के लिए और अपनी जिम्मेदारियों को समझने के लिए आज का दिन काफी इंपॉर्टेट है. अगर चीजों को देख रहे हैं, समझ रहे हैं तो इनीशिएटिव लेने के बारे में भी हमें ही सोचना होगा. नहीं क्या?
(११ जुलाई को i-next में प्रकाशित)