Monday, May 24, 2010

rishta.com

दूबे जी के निशाने पर आजकल, मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर्स हैं. सुना है, उन्होंने घर के सारे मोबाइल कनेक्शन बंद कराके, पुन: सरकारी डेस्क फोन (की पैड पर ताला चाभी युक्त) की सुविधा ले ली है. करें भी क्यों ना..इस महीने उनके मोबाइल का बिल ही कुछ ऐसा आया है. उनके बड़े बेटे ने आईपीएल के दौरान उंगली क्रिकेट में सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं. रही सही कसर छोटे सुपुत्र ने पूरी कर दी है. मैंने दूबे जी को समझाया कि बिल के बारे में एक बार कम्पनी में बात करके देखें. तकनीकी गड़बड़ संभव है. उन्होंने मुझे ऐसा घूरा मानो आखों से ही भस्म कर देंगे. कहने लगे कि यह सब वो पहले ही कर चुके हैं. यह तो उनके लाडले के यारी दोस्ती सेवाओं का नतीजा है.

वो बताने लगे कि यह सब सिर्फ एक मैसेज से शुरू हुआ. मैसेज था, हैलो, मैं बिपाशा, मुझसे दोस्ती करोगे? बस इसी मैसेज के बाद उनका सपूत बिपाशा के मोह जाल में फंस गया. ज्यादा गुस्सा तो इस बात का भी है कि उनके सुपुत्र की बिपाशा, बिपाशा बसु की जगह कानपुर की बिपाशा निकल गयी. अब उन्हें कौन समझाए कि चंद मासिक शुल्क और 3 रुपया मिनट की दर पर इससे ज्यादा और क्या मिलेगा? वैसे, आजकल मोबाइल पर मिलने वाली इस प्रकार की ऐड ऑन सेवाओं से आप बाखूबी परिचित होंगे. लेकिन इस तरह की सर्विसेज कई तरह के सवाल भी खड़े करती हैं.

तकनीकी क्रांति ने हमें सब कुछ दिया है. हमें सामाजिक तौर पर और सक्रिय बनाया. आज हम अपने दोस्तों से ज्यादा से ज्यादा बेहतर तरीके से कनेक्ट हैं. ऑरकुट, ट्विट्र, फेसबुक, हाई-फाई, लिंक्डइन, इन्ड्या रॉक्स, और न जाने क्या-क्या. यह सब हमारे बढ़ते सामाजिक दायरा के उदहारण हैं. फ्रेंड लिस्ट में 500 से ज्यादा दोस्त हैं, फिर भी दिल खुद को अकेला महसूस करता है. कहीं एक कमी सी है तभी तो हम बाज़ार में आने वाले इस दोस्त और दोस्ती के नित नए ऑफर्स को एक्सेप्ट कर रहे हैं. व्यावसायिक कंपनियां भी इसी जुगाड़ में लगी रहती हैं कि किस प्रकार इस रिश्ते को नए कलेवर और पैकेजिंग में उतारा जाए. जरूरत के मुताबिक इंटरनेट पर नॉर्मल फ्रेंड फाइंडर साईट्स से लेकर अडल्ट फ्रेंड फाइंडर साईट्स तक अवेलेबल हैं. बस, जेब से क्रेडिट कार्ड निकालिए और मन मुताबिक इस रिश्ते की खरीददारी कीजिये.
दोस्ती के भी आपको आजकल नए-नए रूप देखने मिलेंगे. नेट फ्रेंड्स, कॉलेज फ्रेंड्स, मोहल्ला फ्रेंड्स, चैट फ्रेंड्स, पेन फ्रेंड्स, एसएमएस फ्रेंड्स. तकनीकी क्रांति के पहले शायद दोस्ती के इतने फ्लेवर मौजूद नहीं थे. ज्यादा जरूरत बढ़ी तो फ्रेंडशिप क्लब बन गए. एक पुराने न्यूजपेपर में किसी फ्रेंडशिप क्लब के क्लासीफाइड ऐड की बानगी कुछ यूं थी. अपने शहर में हाई प्रोफाइल हाउस वाइफ और महिलाओं से दोस्ती करें और हजारों कमाएं. सौजन्य से ब्लैक ब्यूटी फ्रेंडशिप क्लब. निम्न मोबाइल पर संपर्क करें. अगर ये सोचें कि दोस्ती करने से हजारों की कमाई कैसे होगी, तो शायद आप सोचते ही रह जायेंगे. कुकुरमुत्ते की तरह उग आये इन फ्रेंडशिप क्लबों के नाम पर छपने वाले विज्ञापनों की असलियत क्या है, वो तो हमें गाहे-बगाहे समाचार पत्रों से पता चलता ही रहता है.

बहुत पहले साहित्यकार रामचंद्र शुक्ल का एक निबंध पढ़ा था, जिसमें मित्रता पर उन्होंने कहा था कि मित्रों के चुनाव की उपयुक्तता पर जीवन की सफलता निर्भर करती है. पर आज के जमाने में हमने इस स्टेटमेंट को अपने तरीके से समझ लिया है. कैसे? हम उन्हें ही मित्र बनाते हैं, जिससे जीवन में सफलता के चांसेज बढ़ जायें. वक्त बदला तो मित्रता के मायने भी बदल गए. आज हमें दोस्त और दोस्ती भी थैला भर के चाहिए. एक दोस्त छूट गया तो क्या गम, बाकी तो हैं. समस्या तो यही है, गम क्यों नहीं है, क्या दोस्ती भी बाज़ार में मिलने वाले विभिन्न सर्विस प्रोवाइडर्स के सिम कार्ड की तरह हो गयी है, जिसमे सर्विस न पसंद आने पर दूसरा कार्ड लेने की सुविधा है. ज़ंजीर में प्राण साहब के लिए यारी ही ईमान थी और यार ही जिंदगी. पर यह मॉरल्स फिल्म के साथ ही पुराने पड़ गये. आजकल इश्क कमीना और कम्बख्त हो गया है. मुहब्बत, बेईमान मुहब्बत हो गयी है. दोस्ती भी दोस्ती न रही, दिल दोस्ती etc हो गयी है. क्या आपको नहीं लगता कि हमें दोस्त और दोस्ती के मतलब को समझने के लिए एक रेवोल्यूशन की जरूरत है, सोचियेगा जरूर.

Saturday, May 1, 2010

पागलपंथी भी जरूरी है

तिवारी जी को लोग़ आजकल 'स्टंटर' तिवारी के नाम से भी जानने लगे हैं.असली नाम तो शायद कुछ एक को ही पता हो.जीवन में ३० से ऊपर वसंत देख चुके तिवारी जी के पास कहने को तो डाकटरी की डिग्री भी है पर आजकल उनका मन प्रैकटीस में नही लगता.सब कुछ कुछ छोड़ छाड़ कर रेसिंग ट्रैक पर स्टंट करते दिखने लगे हैं.किसी तरह जुगाड़ करके मनपसंद बाईक खरीदी और चल पड़े जीवन में एडवेंचर की तलाश में.तलाश पूरी हुई कि नही,यह तो नही पता,पर आजकल वो बिस्तर पर हैं.किसी होलीवुड फिल्म के मोटर साईकल स्टंट को कॉपी करने के चक्कर में हाथ पैर तुड़ा कर बैठे हैं.उनके उत्साह में कोई कमी नही हुई है और वो ट्रैक पर वापसी की तैयारी में हैं
पर आपका सोचना भी लाजिमी है कि आज इस तरह का एक्साम्पल क्यों?पिछले कई महीनो से मै और मेरे मित्रों को जीवन नीरस सा लग रहा है.वही,सुबह से शाम, तक की नौकरी और उसके बाद दिल की दबी हसरतों का गला घोंटना.जब आत्म मंथन किया तो यही एक वाजिब वजह दिखी कि हमारे जीवन में 'पागलपंथी तत्त्व' की कुछ कमी आ गयी है.अब आप सोचेंगे की यह कौन सा एलेमेन्ट है?जी हाँ,एक ऐसा एलेमेन्ट हम सबके अन्दर होता है.एक शरारत भरी फीलिंग जिसे हम पूरा करके कुछ हटके महसूस करते हैं.पर कहीं न कहीं,हम लोक लाज और सामाजिक दबाव में उन हसरतों को दबा देते हैं.मसलन तिवारी जी के शौक का कनेकशन,उनके पेशे और परिवेश से कहीं भी मैच नही करता.पर उन्होंने दिमाग के जगह दिल की बात सुनी और वही कर रहे हैं जिसमे उनको ख़ुशी मिल रही है.

बरिस्ता और सी.सी.डी में तो रोजाना काफी पीते हैं पर कभी कभी सड़क के किनारे लगे ठेले पर भी चाय पीने का दिल करता है पर यह भी ख्याल आता है कि अगर सक्सेना जी,मल्होत्रा जी,खन्ना जी ने देख लिया आपके 'स्टैनदर्ड' के बारे में क्या सोचेंगे?कालेज लाईफ के दौरान सिनेमा हाल के सबसे आगे की सीट पर बैठ कर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन उचकाकर फिल्में देखना और सीटी मारना भी हम मिस करते होंगे.घर पर किसी छोटे बच्चे को जब आप वो विडियो गेम खेलता देखते होंगे जिसमे कभी आप खुद को मास्टर समझते थे तो दिल में यही आता होगा कि एक बाज़ी खेल कर देख ही लें पर हर इच्छा को हम यही सोच कर दबा लेते हैं कि लोग़ क्या कहेंगे?अपने से जयादा दूसरों के बारे में सोचकर हम रोजाना न जाने कितने खुशिओं का गला घोंटते हैं?

पर जिनके दिल पर दिमाग हावी हो जाता है वो फिर उसी की ही सुनते हैं और यह भूल जाते हैं कि ख़ुशी दूसरों के खुशिओं कि कीमत पर नही मिल सकतीं.मेरे स्कूल लाईफ में भी एक ऐसा लड़का था जिसका पागलपंथी एलेमेन्ट जरा हटके था जैसे दूसरों के सीट्स के नीचे पिन रख देना,लड़कियों के बालों में च्विंग गम चिपका देना आदि.आज भी बहुतेरे ऐसे लोग़ मिल जाते हैं जिन्हें दूसरों को परेशान करके एक मनोवैज्ञानिक ख़ुशी मिलती है.लड़कियों और महिलाओं पर बेवजह छींटा कशी और कमेंट्स करने वाले लोगो को जो भी ख़ुशी मिलती हो पर वो भी उनके पागलपंथी एलेमेन्ट का बिगड़ा हुआ रूप है.हालांकि यह कहना सरासर गलत है कि वो ऐसा अपनी दिल की आवाज सुनकर करते हैं.

इसलिए यह ख्याल रखना है कि अगले बार अपने पागलपंथी को शांत करने के चक्कर में दूसरों का मानसिक उत्पीडन न हो.हाँ,एक बात और,थोडा सा प्रीकाशन भी रखना है.वरना,राए साहब की तरह गर्ल फ्रेंड को बाईक पर बिठाकर जेम्स बोंड की तरह बेतहाशा गाडी चलाने के चक्कर में में हाथ पैर न तुडवाना पड़े.गर्मी की छुटियाँ आ रही हैं.मौका भी है और दस्तूर भी.ज़िन्दगी के रेगुलर पैटर्न से कुछ वक़्त निकालकर लग जाईए,अपने पागलपंथी तत्त्व की खोज में और हाँ,लोगों की परवाह करना छोड़ दीजिये क्योंकि लोगों का काम ही है कहना....
३० अप्रैल को i-next में प्रकाशित..http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=4/30/2010&editioncode=1&pageno=16