Saturday, May 30, 2009

बीडी बुझईले...

आप यह लेख i-next इ-पेपर में भी पढ़ सकते हैं.

सैफ्रन टेरर, जी नहीं, मैं उस मुद्दे के बारे में बिलकुल भी बात नहीं कर रहा, जो कुछदिनों पहले मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज का हिस्सा थी. मैं बात कर रहा हूं उस टेरर की जिससे हमारे घर, दफ्तर, शिक्षण संस्थान, गली, नुक्कड़, पब्लिक, टॉयलेट, लिफ्ट का कोना कुछ भी अछूता नहीं है. जी हां, पान मसाले और गुटखे की पीक से गहरे लाल-केसरिया रंग में रंगा वह चिर-परिचित आतंक, जिससे हम रोज रू-ब-रू तो होते हैं पर कुछ खास कर नहीं पाते. अब आप सोच रहे होंगे कि आज पान-मसाले व तम्बाकू सेवन पर बात करने की क्या जरूरत पड़ गयी? भई, कल 31 मई को हम व‌र्ल्ड नो टोबैको डे मनायेंगे. तो आज से ही सोचना पड़ेगा ना? वैसे भी इस मुद्दे पर बात करने की एक वजह और भी है. सोचिए तम्बाकू से हमारा कितना गहरा रिश्ता है. आप नहीं मानते, ठीक है जरा इन आंकड़ों पर ऩजर डालिए. भारत में करीब 120 मिलियन, स्मोकर्स हैं और करीब 10 लाख लोग हर साल तम्बाकू से संबंधित बीमारियों से मारे जाते हैं. भारत में स्मोकिंग करने वाला हर पांच में से एक इंसान तम्बाकू से होने वाले बीमारियों का शिकार होता है. दुनिया भर की बात करें तो हर 6 सेकेंड पर एक इंसान तम्बाकू की वजह से मारा जाता है.

वैसे इन आंकड़ों के बावजूद इसके समर्थकों की कमी नहीं है. ऐसे ही एक समर्थक मित्र का तर्क है कि उनकी हेल्थ है, वह इस बारे में सोचें या ना सोचें, किसी को क्या प्रॉब्लम है? अब उन्हें क्या पता कि अपनी इस आदत से हम अकसर दूसरों के लिए परेशानी का सबब बन जाते हैं. फिर चाहे वह हमारी फैमिली हो, दोस्त, सहयोगी या अनजान लोग. हर कोई कभी न कभी हमारी पैसिव स्मोकिंग का शिकार होता है, जो डायरेक्ट स्मोकिंग जितनी ही नुकसानदायक है. वैसे भी यह स्मोकिंग हमारे लिए हार्ट डिजीजेज, तरह-तरह के कैंसर, सेक्स संबंधित समस्यायें, अस्थमा और न जाने क्या-क्या बीमारियां लेकर आती हैं. मेरे मित्र का तर्क यहीं खत्म नहीं हुआ. कहने लगा कि यह धूम्रपान उद्योग कितने ही लोगों को रोजगार देता है. सच्चाई तो यह है कि इस इंडस्ट्री से जुड़े मजदूर हमेशा से गरीब थे और रहेंगे. असली फायदा तो इसके मालिकों को है. फिर भी सिगरेट पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए.

वैसे रियल लाइफ के अलावा रील लाइफ में भी स्मोकिंग का बोलबाला रहा है. अधिकांश फिल्मी हीरोज सिल्वर स्क्रीन पर धुएं का छल्ला उड़ाते दिखाई देते हैं. फिर वह ब्लैक एंड व्हाइट जमाने के देव आनन्द हों या आज के शाहरुख खान. एक रिपोर्ट कहती है कि 52 प्रतिशत बच्चे अपना पहला कश इन्हीं सितारों को देखकर भरते हैं. गाहे-बगाहे हमारे गानों ने भी दम मारो दम, हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया.. सिगरेट के धुएं का छल्ला बनाके.. बीड़ी जलइले.. से मॉरल सपोर्ट दिया है. कुछ लोग कुतर्क दे सकते हैं कि बीड़ी हर्बल है शायद तभी गुलजार साहब ने इसे जिगर से जलाने की बात कही थी. पर सच्चाई तो यह है कि बीड़ी भी उतनी ही नुकसान दायक है, जितनी सिगरेट. इससे निकलने वाले कार्बन मोनो ऑक्साइड और अन्य जहरीले रसायनों की मात्रा सिगरेट से कहीं ज्यादा होती हैं.

अब क्या कहें, इन विज्ञापन कंपनियों को जो इसके सेवन को शाही अंदाज, शाही स्वाद, बड़े लोगों की बड़ी पसंद बताते हैं. सरकार ने एक आदेश में सिगरेट के पैकेट पर 40 परसेंट से ज्यादा हिस्से पर वैधानिक चेतावनी लिखने का आदेश दिया है. पर क्या यह कदम तंबाकू निषेध के लिए काफी है? हमारे देश की एक बहुत बड़ी खासियत है कि हमारे स्वास्थ्य और सुरक्षा के बारे में हमसे ज्यादा सरकार और प्रशासन को चिंता करनी पड़ती है. अगर ऐसा नहीं होता तो क्या हैलमेट पहनकर गाड़ी न चलाने, सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान व मद्यपान करके दूसरों के लिए समस्या खड़ी करने के लिए क्या सरकार जुर्माना लेती? आप धूम्रपान प्रेमियों को कितना भी मना कर लीजिए पर वह मानेंगे नहीं. इसलिए धूम्रपान कानून को और कड़ा करने में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि कहीं न कहीं हमारा समाज बिन भय होए न प्रीत में अब भी भरोसा करती है.


Monday, May 25, 2009

खत्म हुआ क्रिकेट का दूसरा कर्मयुद्ध...


यह लेख आप NDTV वेबसाईट पर भी देख सकते हैं..
कितना कुछ ख़ास रहा इस आई पी एल में.पिछले बार की चैम्पियन राजस्थान रायल्स इस बार सेमी फाईनल में भी जगह न बना सकी.पूरा  फाईनल 'बीयर' बनाम 'बिरयानी' बन कर रह गयी.जी हाँ,बीयर यानि माल्या साहब की रायल चैलेंजर्स  और बिरयानी यानी हैदराबादी डेकन चारजर्स.पिछले साल की अंकतालिका में सबसे फिसड्डी दो टीमों ने इस बार फाईनल में जगह बनाई और रोमांचक मुकाबले में चारजर्स क्रिकेट के इस कर्मयुद्ध का विजेता बना.कुछ मामलों में यह आई पी एल पिछली बार से थोडा अलग रहा.प्रत्येक दस ओवेर्स के बाद 'रणनिति ब्रेक' की अवधारणा इस आई पी एल का हिस्सा बनी.बहुत सारे लोगों ने तो इसे विज्ञापन बाज़ी का नया बहाना बताया.

२०-२० क्रिकेट की बात हो और चीयरलीडर्स की बात न हो तो कैसे चलेगा?इस बार देश के संस्कृति और सभ्यता के सारोकारों का शायद इस तरफ ध्यान नही गया.बहाना यह हो सकता है कि इस बार का आई पी एल तो दूसरे देश में हुआ.शायद हमारी संस्कृति इन चीयर बालाओं को टेलीवीजन की स्क्रीन पर देखकर नही ख़राब होती.इस  बार हरभजन श्रीसंथ विवाद जैसा तो कुछ भी न हुआ पर खिलाड़ियों के बीच गरमा गर्मी और बहस खूब चली चाहे वो एक ही देश के खिलाडी क्यों न हों.शायद टीम भावना और मित्रता पर कारपोरेट क्रिकेट और पैसा भारी पड़ रहा है.हैडेन श्रीसंथ की पुरानी रंजिश यहाँ भी नज़र आई और हैडेन ने तो श्रीसंथ को 'ओवर रेटेड' गेंदबाज़ करार दे डाला.धोनी का जादू थोडा फीका तो पड़ने ही लगा है.उनकी टीम चेन्नई इस बार सेमी फाईनल से ही बाहर हो गयी जबकि उन्हें सबसे मजबूत दावेदार माना जा रहा था.यह आई पी एल युवराज और रोहित शर्मा के हैट्रिक और मनीष पाण्डेय सरीखे अनजाने से बल्लेबाज़ के शतक का भी गवाह बना.

विवाद और इस आयोजन का तो रिश्ता जगजाहिर है.इस बार भी कई विवाद चर्चाओं में रहे पर मीडिया ने उसपर ज्यादा ध्यान नही दिया.जेसी राईडर शराब के नशे में  सुरक्षा कर्मियों से भीड़ गए तो टीम पंजाब के मालिक और अभिनेत्री प्रीति जिंटा के बॉयफ्रेंड नेस वाडिया छेड़खानी के मामले में पिटाई खाते हुए बचे.विवादों के लिए इस बार तालिका में अव्वल रही शाहरुख़ खान की टीम कोलकाता नाईट राईडर्स.पहले देश के सफलतम कप्तानों में से एक सौरभ गांगुली को कप्तानी से हटाया गया.क्या विडंबना है?कोलकाता के नाम से शुरू इस टीम का मुखिया कोई विदेशी खिलाडी बन गया,वो भी एक विदेशी कोच के कहने पर.टीम का कैप्टेन मकुलम को बना दिया गया.पूर्व क्रिकेट खिलाडी अजय जडेजा ने इस बात का खुलासा किया कि उनके पास इस बात के पक्के सबूत हैं कि कोलकाता टीम में नस्लीय भेद भाव हो रहे हैं.शायद इसी लिए कोलकाता टीम का मनोबल बुरी तरह से गिरा हुआ है और टीम करीब करीब सारे मैच हार चुकी है.शाहरुख़ लगातार हो रही हार से खीजकर वापस देश लौटचुके थे और उनका कहना है कि जब उनकी टीम स्वदेश लौटेगी तो वो टीम से इस बाबत बात करेंगे.शाहरुख़ शायद नही समझ पा रहे कि उनसे क्या गलती हुई?गलतियाँ चाहे जो हुई हों पर शाहरुख़ को यह समझना चाहिए कि कोलकाता की टीम तभी कोलकाता की कहलाएगी जब उसमे कोलकाता की आत्मा मौजूद हो,पर यहाँ सब कुछ होता है क्योंकि यह इंडियन प्रीमीयर लीग है.

कुल  मिलाके  आई पी एल-२ पूरी तरह हिट रहा.इसके सफलता से उत्साहित होकर ललित मोदी ने इसके साल में  दो बार आयोजन की बात कही है,हाँ एक बात की तो तारीफ़ करनी होगी.दो विदेशी कोच,दिल्ली के शेफर्ड और कोलकाता के बुकनान की मांग कि टीम में ४ से ज्यादा विदेशी खिलाड़ियों को शामिल किया जाए,को मोदी एंड कमेटी ने अस्वीकार कर दिया.वजह चाहे जो भी रही हो पर एक आम भारतीय होने के नाते हम सब ऐसा जरूर चाहेंगे कि आई पी एल में ज्यादा से ज्याद भारतीय खिलाडियों को मौका मिले क्योंकि यह इंडियन प्रीमिअर लीग है,'इंटरनैशनल' प्रीमिअर लीग नही.विदेशी खिलाडी सिर्फ ग्लेमर का तड़का लगाने तक की भूमिका तक सीमित रहें तो ही अच्छा है.

Monday, May 4, 2009

बा,बहू और "बिकनी"

आप यह लेख i-next ई पेपर में पढ़ सकते हैं....... http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspxedate=5/4/2009&editioncode=2&pageno=12
चौंक गए ना!!जाहिर है कि टाइटल ऐसा है कि युवा और सामजिक मूल्यों के पैरवीकार ,दोनों का ही ध्यान एक साथ आकर्षित हुआ होगा.अब आप सोच रहें होंगे कि जब सारे देश पर ipl और चुनावी नतीजों का बुखार चढा हुआ है तो ऐसा ऑफ बीट मुद्दा मेरे दिमाग में कैसे आया?अभी कुछ दिनों पहले मै टी वी पर मिस इंडिया कम्पटीशन का लुत्फ़ उठा रहा था.वैसे यह आनंद ज्यादा देर का न रहा क्योंकि मेरी माताजी सास बहु सेरिअल्स की बहुत बड़ी प्रशंसक हैं और दुर्भाग्यवश मै उनके और उन्हें बा बहु की कहानियो के बीच रोड़ा बन रहा था.ड्राइंग रूम छोड़ते छोड़ते-2 ही बिकनी का टोपिक मेरे दिमाग में आया.वैसे भी,मेरे कुछ मित्रों का मानना है कि मेरे लेखों में interest value कम होता है सो अब लिखते समय मेरे सामने दो चुनौतियाँ हैं-पहली,interest value को बनाये रखना और दूसरी ऐसे controversial subject पर साफ़ सुथरे बच निकलना.जाहिर है कि बिकनी एक ऐसा मुद्दा है जिसपर आम भारतीय जनमानस एक ही रवैया अपनाता है-"तुम्हे देखा भी ना जाए,तुम्हे देखे बिना रहा भी ना जाए".ऐसा क्यों हैं,इस बहस में ना पड़ा जाए तो ही बेहतर है .फिलहाल हम सिर्फ इस बारे में बातें करेंगे कि ऐसा है भी या नहीं?
फिल्मों के एक्साम्पल के बिना किसी सोशल इशु के बारे में बात करना पोस्सिबल नहीं.फिल्में हमारे सोसाइटी में trendsetter की भूमिका निभाती हैं.फिल्में लाइफ स्टाइल और mentality दोनों को प्रभावित करती हैं.और जहाँ तक बिकनी का सवाल है,उसका और हमारी फिल्मों का बहुत पुराना रिश्ता है.हमारा सिनेमा इस बात का गवाह रहा है की लीडिंग heroiens हमेशा से बिकनी पहनते आयीं हैं,वैसे इस ट्रेंड की शुरुआत ५०-६० के दशक में आर के बैनर की फिल्म 'आवारा' में नर्गिस जी ने की.फिर वैजयंती माला ने 'संगम में',सायरा बानो ने 'पूरब और पश्चिम' में और नूतन जैसी गंभीर छवि की अभिनेत्री ने 'यादगार'में और शर्मीला जी ने 'एन इवेनिंग इन पेरिस'में बिकनी को सोशल acceptance दिलाने का प्रयास किया.हालांकि यह अलग बात है कि आजकल वही शर्मीला जी,फिल्मों में ऐसे दृश्यों पर सेंसर की कैंची चलाती हैं.फिर सिमी गिरेवाल,जीनत अमान,टीना मुनीम, से लेकर प्रेसेंट में जीरोफिगर वाली करीना और प्रियंका चोपडा ने भी इसे सिल्वर स्क्रीन का हिस्सा बनाया. 

ऐसा नहीं है कि सिर्फ फिल्मों में बिकनी का acceptance रहा हो.ऐश्वर्या राए,सुष्मिता सेन,लारा दत्ता,प्रियंका चोपडा,डायना हेडन जैसी महिलायों ने वर्ल्ड लेबल के ब्यूटी कामपेटीशन में शीर्ष मुकाम हासिल किया है जिसका रास्ता कहीं न कहीं बिकनी से होकर गुजरता है.बिकनी के सोशल acceptance के कुछ और भी एक्साम्पल हैं.हमारे देश के लीडिंग industrialist विजय माल्या जी,हर साल एक ख़ास किस्म का कैलेंडर गोवा में तैयार करवाते हैं.इन्तेरेस्तिंग यह है कि इसके लिमिटेड एडिशन होते हैं और इसे पाने वालों की लाइन में वो लोग भी लगे होते हैं जो खुले तौर पर बिकनी को सामाजिक पतन का कारण समझते हैं.हाल के ही सालों में,भारत में,लांजरी फैशन शोस में बढोतरी भी यह बताती है कि अब बिकनी को हमारे सोसाइटी में acceptance मिलने लगा है.  
शायद अब वो दिन चले गए जब हम टी वी पैर किसी कम कपडों वाली बाला को देखकर रिमोट ढूँढने लगते थे.आज हम खुले तौर पर करीना के जीरो फिगर के टशन,प्रियंका के गोल्डन बिकनी और स्प्लिट्स विला के कुडियों के ऐटीटूट को डिसकस करते हैं.आज टी वी पर आने वाले ब्यूटी competetions को अनेको families साथ देखती हैं.अरे हाँ ,एक बात बताना तो भूल ही गया.जब मै वो ब्यूटी कम्पटीशन देख रहा था,तो मैंने अपने मम्मी से यूं ही मजाक में पूछा की उन्हें स्क्रीन पर दिखने वाली कुडियों में से कोई अपनी बहु के तौर पे पसंद है कि नहीं.मम्मी ने जो कहा ..शायद उस जवाब ने एक बहुत बड़े सवाल को पैदा कर दिया.मम्मी कहने लगीं कि वो मेरे लिए सिंपल सी अच्छी लड़की ढूंढ के लाएगी.हालांकि मै पूछ न सका कि सिंपल की क्या डेफिनिशन है या टी वी पर दिखने वाली लड़कियां सिंपल की कातेगरी में क्यों नहीं आतीं?पर सवाल सिर्फ इतना है कि क्या वजह है कि आज भले ही हमारे सोसाइटी में ऐश्वर्या और सुष्मिता यूथ ikon हों पर 'बा' को अपने घर में तुलसी या पार्वती जैसे ही बहू चाहिए?आखिर बा अपने बहू के साथ ऐसा दुहरा व्यहवार क्यों अपना रहीं हैं?.

Saturday, May 2, 2009

खुशियाँ जो कभी मिली नहीं...

तरसता हूँ,
खुशियों को तरसता हूँ,
जो यूँही कभी दिख जाती हैं,
जो यूँही मुझे मिलती नही,
तरसता हूँ,
ऐसी हर खुशी को तरसता हूँ.....!!!



कभी घर पर आती थी...वो बूढी दाई माँ...
हमारे झूठे बर्तनों में अपनी रोटियाँ तलाशते हुए..
जितनी शिकायत थी हमें ज़िन्दगी के हर निवाले में..
वो खुशियाँ लूटती थी चाय के उस एक प्याले में....
 कभी माँगा नही उसने कुछ मुझसे..
शायद ज़िन्दगी का हर सामां था उसके पास..
जिन बेटों ने उससे कभी मुह मोड़ लिया...
उसे आज भी थी उनके लौट आने की आस ....
कभी पाला था जिन्हें नौ महीने पेट में रखकर
फांके किये.रोटियाँ बनाई,चूल्हे की तपिश में  मर कर
नौ दिन भी न रह सकी वो उन बेटों के बनाये घर पर..

एक दिन सुना...वो दाई माँ अब न रहीं..
सब कुछ सहा बड़े ही खामोशी से..
बेटे लौटे,लिपट कर रोये.
चुप थीं,चुप रहीं.कुछ भी बोला नहीं .
जीते जी तो किसी से कुछ भी न माँगा था
मरने के बाद भी बेटों को निडर कर गयीं.
जो कंगन बनवाये थे अपनी बहुओं के लिए,
अपने आखरी सफ़र पर जाने को
संदूक के किसी कोने में उन्हें चुपके से धर गयीं...  

ज़िन्दगी के इस सफ़र में...
वो बूढी दाई माँ तो काफी पीछे छूट गयी हैं..
वो अक्सर सपनों में आती हैं
हंसती हैं,मुस्कुराती हैं,हौसला बढाती हैं..
खीजता हूँ,चीखता हूँ..काले बादलों सा बरसता हूँ...
हाँ,मै तरसता हूँ..उन खुशियों के लिए तरसता हूँ..