Saturday, May 1, 2010

पागलपंथी भी जरूरी है

तिवारी जी को लोग़ आजकल 'स्टंटर' तिवारी के नाम से भी जानने लगे हैं.असली नाम तो शायद कुछ एक को ही पता हो.जीवन में ३० से ऊपर वसंत देख चुके तिवारी जी के पास कहने को तो डाकटरी की डिग्री भी है पर आजकल उनका मन प्रैकटीस में नही लगता.सब कुछ कुछ छोड़ छाड़ कर रेसिंग ट्रैक पर स्टंट करते दिखने लगे हैं.किसी तरह जुगाड़ करके मनपसंद बाईक खरीदी और चल पड़े जीवन में एडवेंचर की तलाश में.तलाश पूरी हुई कि नही,यह तो नही पता,पर आजकल वो बिस्तर पर हैं.किसी होलीवुड फिल्म के मोटर साईकल स्टंट को कॉपी करने के चक्कर में हाथ पैर तुड़ा कर बैठे हैं.उनके उत्साह में कोई कमी नही हुई है और वो ट्रैक पर वापसी की तैयारी में हैं
पर आपका सोचना भी लाजिमी है कि आज इस तरह का एक्साम्पल क्यों?पिछले कई महीनो से मै और मेरे मित्रों को जीवन नीरस सा लग रहा है.वही,सुबह से शाम, तक की नौकरी और उसके बाद दिल की दबी हसरतों का गला घोंटना.जब आत्म मंथन किया तो यही एक वाजिब वजह दिखी कि हमारे जीवन में 'पागलपंथी तत्त्व' की कुछ कमी आ गयी है.अब आप सोचेंगे की यह कौन सा एलेमेन्ट है?जी हाँ,एक ऐसा एलेमेन्ट हम सबके अन्दर होता है.एक शरारत भरी फीलिंग जिसे हम पूरा करके कुछ हटके महसूस करते हैं.पर कहीं न कहीं,हम लोक लाज और सामाजिक दबाव में उन हसरतों को दबा देते हैं.मसलन तिवारी जी के शौक का कनेकशन,उनके पेशे और परिवेश से कहीं भी मैच नही करता.पर उन्होंने दिमाग के जगह दिल की बात सुनी और वही कर रहे हैं जिसमे उनको ख़ुशी मिल रही है.

बरिस्ता और सी.सी.डी में तो रोजाना काफी पीते हैं पर कभी कभी सड़क के किनारे लगे ठेले पर भी चाय पीने का दिल करता है पर यह भी ख्याल आता है कि अगर सक्सेना जी,मल्होत्रा जी,खन्ना जी ने देख लिया आपके 'स्टैनदर्ड' के बारे में क्या सोचेंगे?कालेज लाईफ के दौरान सिनेमा हाल के सबसे आगे की सीट पर बैठ कर शुतुरमुर्ग की तरह गर्दन उचकाकर फिल्में देखना और सीटी मारना भी हम मिस करते होंगे.घर पर किसी छोटे बच्चे को जब आप वो विडियो गेम खेलता देखते होंगे जिसमे कभी आप खुद को मास्टर समझते थे तो दिल में यही आता होगा कि एक बाज़ी खेल कर देख ही लें पर हर इच्छा को हम यही सोच कर दबा लेते हैं कि लोग़ क्या कहेंगे?अपने से जयादा दूसरों के बारे में सोचकर हम रोजाना न जाने कितने खुशिओं का गला घोंटते हैं?

पर जिनके दिल पर दिमाग हावी हो जाता है वो फिर उसी की ही सुनते हैं और यह भूल जाते हैं कि ख़ुशी दूसरों के खुशिओं कि कीमत पर नही मिल सकतीं.मेरे स्कूल लाईफ में भी एक ऐसा लड़का था जिसका पागलपंथी एलेमेन्ट जरा हटके था जैसे दूसरों के सीट्स के नीचे पिन रख देना,लड़कियों के बालों में च्विंग गम चिपका देना आदि.आज भी बहुतेरे ऐसे लोग़ मिल जाते हैं जिन्हें दूसरों को परेशान करके एक मनोवैज्ञानिक ख़ुशी मिलती है.लड़कियों और महिलाओं पर बेवजह छींटा कशी और कमेंट्स करने वाले लोगो को जो भी ख़ुशी मिलती हो पर वो भी उनके पागलपंथी एलेमेन्ट का बिगड़ा हुआ रूप है.हालांकि यह कहना सरासर गलत है कि वो ऐसा अपनी दिल की आवाज सुनकर करते हैं.

इसलिए यह ख्याल रखना है कि अगले बार अपने पागलपंथी को शांत करने के चक्कर में दूसरों का मानसिक उत्पीडन न हो.हाँ,एक बात और,थोडा सा प्रीकाशन भी रखना है.वरना,राए साहब की तरह गर्ल फ्रेंड को बाईक पर बिठाकर जेम्स बोंड की तरह बेतहाशा गाडी चलाने के चक्कर में में हाथ पैर न तुडवाना पड़े.गर्मी की छुटियाँ आ रही हैं.मौका भी है और दस्तूर भी.ज़िन्दगी के रेगुलर पैटर्न से कुछ वक़्त निकालकर लग जाईए,अपने पागलपंथी तत्त्व की खोज में और हाँ,लोगों की परवाह करना छोड़ दीजिये क्योंकि लोगों का काम ही है कहना....
३० अप्रैल को i-next में प्रकाशित..http://inext.co.in/epaper/inextDefault.aspx?edate=4/30/2010&editioncode=1&pageno=16

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