Friday, October 9, 2009

हमारा नेटवर्क टू तुम्हारा नेटवर्क

आपको एक मोबाइल कंपनी का वो बहुत ही फेमस ऐड तो याद ही होगा जिसमें सर्विस प्रोवाइडर खुद को आपके पालतू कुत्ते के तौर पर देखता है और आपको हर जगह फॉलो करता है. पैसों के लिए लोग क्या नहीं करते. आजकल तो हर मोबाइल सर्विस के अपने अलग वादे हैं. आपका साथ न छोड़ना, आपके साथ हर जगह अवेलेबल रहना, बेहतरीन नेटवर्क या सर्विस प्रोवाइड करना, इसका दावा तो आजकल हर मोबाइल कंपनी कर रही है. ये दावे कितने सच हैं, यह अलग बात है लेकिन एक बात तो पक्की है कि यह मोबाइल सर्विसेज हमारी नयी दोस्त हैं और यह विश्वास और सुविधाओं के नए आयाम गढ़ रहे हैं.

हम कलियुग में जी रहे हैं. मैंने अपने तरीके से कलियुग के पिछले 30-40 सालों को दो हिस्सों में कैटेगराइज किया है. पहला टेलीफोन युग और दूसरा मोबाइल युग. पेजर युग का नाम इसलिए नहीं क्योंकि पेजर अपने जन्म के कुछ दिनों बाद. अपने बचपन में ही आजकल मौत का शिकार हो गया. पहले बात टेलीफोन युग की. भले ही आजकल टेलीफोन इनडेंजर्ड स्पेसीज में शामिल हो गया है पर इसका भी एक सुनहरा दौर था. सरपंच जी के घर पर लगा टेलीफोन सेट सारे गांव की लाइफलाइन हुआ करती थी जिसकी सेवा पर गाहे-बगाहे मौसम की मार भी पड़ती रहती थी. भले ही आप यह घंटों सुनते रहें कि इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं, कृपया थोड़ी देर बाद डायल करें पर दिल था कि मानता नहीं.

ट्रंक कॉल बुक करने का एक सामाजिक रुतबा था. चोरों के भी ऐश थे. अरे भई, टेलीफोन वायर काफी ऊंची कीमतों पर बिकता था. इन अंडर ग्राउंड वायरिंग और मोबाइल कंपनियों ने तो चोरों के पेट पर लात ही मार दी. चलिए, टेलीफोन युग के बारे में बातें फिर कभी. अभी बात करते हैं मोबाइल युग की. आजकल सुबह हम अलार्म के कर्कश शोर से नहीं बल्कि मनपसंद रिंगटोन से उठते हैं. कलाइयों पर घड़ी सिर्फ फैशन के लिए रह गयी है, समय तो हमें हमारा मोबाइल ही बताता है. आज सबके अपने निजी मोबाइल एफ एम सेट और एमपीथ्री प्लेयर्स हैं. आज भी याद आता है वो हाई स्कूल और इंटर के बोर्ड एक्जाम का रिजल्ट आने का दौर जब सिर्फ एक न्यूजपेपर में सैकड़ों लोग सर घुसाकर अपना रोल नंबर ढूंढते थे. आज तो मोबाइल स्क्रीन पर पूरी की पूरी मार्कशीट ही मिल जाती है.
यह तो हुई मोबाइल की एड ऑन सेवाएं, बेसिक रिक्वॉयरमेंट तो है बात करना. पर आजकल लोग बात नहीं करते हैं. बातें करने के लिए भी तरह-तरह के स्कीम हैं. उनका मोबाइल टू हमारा मोबाइल. हमारा मोबाइल टू हमारा मोबाइल, आपका मोबाइल. स्कीम इतनी सारी कि सुनकर चक्कर आने लगे. याद आता है 90 के दशक का वह दौर जब टेलीफोन कनेक्शन के लिए लगी मीलों लम्बी लाइन में घंटों खड़े होने के बाद मेरे पाप ने फार्म डाला था.

आज देखिए, चंद रुपये खर्च करते ही सिम कार्ड घर पर अवेलेबल हो जाता है. कितना कुछ बदल गया है इस मोबाइल के आने के बाद. वैसे मोबाइल के फायदे को इतने कम जगह में बताना मुश्किल है पर इस छोटी सी डिवाइस ने हमारी के साथ हमें भी बदल कर रख दिया है. कैसे? आप दिल्ली में रहकर खुद को मुंबई में बताइये, झूठ बोलने की ऐसी सुविधा सिर्फ मोबाइल पर ही है. बात न करनी हो तो थोड़ा हैल्लो-हैल्लो बोलकर कह दीजिए कि नेटवर्क नहीं आ रहा. फोन दूसरों की जरूरत पर ऑफ कर लीजिए और कह दीजिए कि बैटरी खत्म हो गयी थी. शहरों, कस्बों के बीच दूरियां घटी हैं पर दिलों के बीच दूरियां बढ़ी ही हैं. आज हम अपने बगल में रहने वाले इंसान से भी मोबाइल पर ही बात कर लेते हैं पर उसके पास जाकर कुछ समय बिताने की जहमत नहीं उठाते. आपको नहीं लगता इस मोबाइल ने हमें बहुत कुछ देकर बहुत कुछ छीन भी लिया है, सोचिएगा जरूर. फिलहाल मेरा मोबाइल बज रहा है..मैं चलता हूं.

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