Friday, November 27, 2009

वो मुड़- मुड़ कर देखना.

दूबे जी आजकल फ्लू से पीड़ित हैं. बदलते मौसम में यह एक सामान्य बात है.पर बात बात पर हम युवाओं और युवा पीढ़ी को कोसने वाले दूबे जी पर चुटकी लेने का मौका कम ही मिलता है सो ऐसा दुर्लभ मौका गवाना मैंने उचित नही समझा.उनसे मिलते ही मैंने पहला बाउनसर डाला.उनके फ्लू को स्वाईन फ्लू की सम्भावना बताकर टेस्ट कराने की हिदायत दे डाली.वो अभी इस वार से सम्हल भी ना पाए थे कि मैंने दूसरा तीर चलाया.मैंने कहा कि उनके जैसा व्यक्ति जो मौसम नही बल्कि बदलते हुए महीने और गुजरते हुए त्योहारों को देखकर कपडे पहनता है(दीवाली के बाद उनके गले में लिपटा मफलर होली के बाद ही उतरता है),वो मौसम के इस हलके फुल्के मिजाज का कैसे शिकार हो गया?

खस्ताहाल दूबे जी,ने इसका भी ठीकरा युवाओं के सर ही फोड़ा.बताने लगे कि आजकल वो लोगों के फैशन बेहेविअर को भी देखकर मौसम का निर्धारण करते हैं.करीब करीब चीखते हुए कहने लगे कि यह आजकल के लड़के लडकियां,इस ठण्ड में भी,इन हलके फुल्के फश्नेबल कपड़ों को ना पहने तो इनका काम ही न चले.कहाँ से कहाँ उन्होंने,उनके इस ट्रेंड को देखकर मौसम का गलत पूर्वानुमान लगाया और बीमार हो गए.बातचीत के दौरान यह भी पता चला कि शहर की कुछ ख़ास लडकियां भी उनके इस हालात् के लिए जिम्मेवार हैं.यह वो हैं जो गर्मी और तेज धूप से बचने के लिए,जून जुलाई में चेहरे को कपड़े दुपट्टे आदि से छिपाकर दुपहियां वाहनों पर चलती हैं.उनकी शिकायत है कि इन सर्दियों में भी वो ऐसा करके धूप गर्मी होने का गलत संकेत क्यों देती हैं?भोले भाले दूबे जी को अब क्या पता कि मौसम की मार से बचने के अलावा यह ट्रेंड बहुत सारी यांगिस्तानियों को मम्मी पापा भाई आदि की नज़रों से बचने,मल्टिपल बॉयफ्रेंड्स मैनैज करने आदि के भी काम आता है.

मेरी बात पूरी तरह से सही नही पर रोजमर्रा की ज़िन्दगी में बहुत ऐसे उदहारण भी मिलते हैं जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि क्या आज के युवा के दो आयाम हैं?एक निजता के पलों में मुहफट,बिंदास,शोख और दूसरा सार्वजनिक तौर पर शिष्टाचार,हया और सादगी से भरा.जी नही.ऐसा नही है.आज का युवा,आडम्बरों में नही जीता,दिल की बातें डायरेक्ट जुबान से बया करता है.पर हमारा सामाजिक परिवेश ही कुछ ऐसा है जो उसे ऐसा करने के लिए मजबूर करता है.चलिए एक एक्साम्पल देता हूँ.बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड होना हमारे यहाँ सामाजिक तौर पर स्वीकार्य नही.बहुत ही कम अभिभावक अपने कन्या को अपने सामने उसके बॉयफ्रेंड से बातें करते देखना पसंद करेंगे .पर मैंने ऐसे अनेको उदहारण देखें हैं जहाँ सगाई होने के बाद अनेको पिता,होने वाले दामाद जी का फ़ोन खुद जाकर बेटी को देते हैं और फिर चाहे वो घंटों तक बातें करती रहे,निश्चिंत रहते हैं.हमारे कुछ फ़्रसटेट दोस्त इसे 'लाइसेंस प्राप्त रोमांस' का दर्जा देते हैं.यानी लड़की शादी से पहले किसी को चुने तो अभिवावक परेशान और अगर आप खुद चुनकर दो,तो कोई दिक्कत नहीं.

वस्तुतः सही और गलत को लेकर हमारा फंडा ही ज़रा कनफ्यूज़ड है.'काबिल' बेटा जब आपके सामने शराब पीता है तो यह उसका बोल्ड और पारदर्शी व्यवहार है और अगर आपके पीछे पीता है तो इसे 'लिहाज' का दर्जा दे दिया जाता है.नालायक बेटे तो किसी तरह से भी शराबी ही कहलाते हैं.यानी शराब ख़राब है या नही,यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है.वैसे,सिर्फ आलोचना करने से क्या होने वाला है?आज का युवा बहुत हद तक इन समस्याओं को समझने लगा है और इसके अनुसार ढल भी चुका है.वो अपने बड़े बुजुर्गों का आदर भी करता है और अपनी ज़िन्दगी को अपने तरह से जीता भी है.इसका एक उदहारण मुझे रेलवे स्टेशन पर तब देखने को मिला जब जींस टॉप सजी में एक आधुनिक युवती ट्रेन से अपने सास के उतरने पर सर पर अपने स्टाइलिश स्टोल को रखकर पाँव छूकर आर्शीवाद लेती दिखी.यानी युवा तो बदल गया है पर अब समाज के दूसरे हिस्सों को भी बदलने की जरूरत है.शायद तभी वो खाई पटेगी जिसे लोग 'जेनेरेशन गैप' कहते हैं.
२८ नवम्बर को i-next में प्रकाशित.http://www.inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=11/28/2009&editioncode=1&pageno=16

3 comments:

Unknown said...

hello abhishek ji..

ek baar fir samajik manyatao ko lekar badalte aayamo avm yuva varg ki soch k bare me aaena dikhta ek mahtvapoorna lekh..nischit taur par ek sarhneey prayaas jiske liye aap badhai k patra hain.mai aapki baat se sahmat hu aaj ka yuva varg pahle ki apesha kahi adhik mature hai.tabi to vo ek taraf apne partner k liye dedicated hai to dusri taraf use samaj ki maan maryada aur parivaar ke samman ki b parvah hai..hum apne parents ke samman k liye kya kuch nahi karte..infact unke liye apne pyar ko b chod dete hai..par kya hamre parents b hamare khuse k liye apne jhooti shan ko chod sakte hai??kya vo apne bachcho ki sachche khuse me unke barabar k sathi ban sakte hai???har mod par unke liye compromise karne walo bachcho k liye kya ma baap apne soch badal kar samaj ka samna karne me apne bachcho k sath garv se khade ho sakte hai??aur agar nahi ho sakte to kyu? ese na jane kitne "kyu" hai jinka unke paas koi javab nahi..fir b hum unka maan rakhte hai aur apne maan maryada ko b naye parivesh me dhalne k baad b zinda rakhte hain..kyuki hum kitne b pashchatya kyu na ho gaye ho..par sanskaro k mamle me "FIR B DIL HAI HINDUSTAANI.."CHEEERS...

apke ek pathak

Pratima.

Arshia Ali said...

Sahi kaha aapne.
Badhaayi.
------------------
शानदार रही लखनऊ की ब्लॉगर्स मीट
.....इतनी भी कठिन नहीं है यह पहेली।

sushant said...

Bhattacharya ji aap saadhuwaad ke paarta hamesha se rahe hain!!!!

Aapke lekh bhartiya jan-maanas ko jhakjhorne ke liye kaafi hain!

Shubhkaamnaon ke saath, aapka mitra!!