Wednesday, March 3, 2010

तस्वीर के उस पार

दूबे जी आजकल घर से ज्यादा बेवफा बार पर दिखाई देते हैं. जी नहीं, यह किसी शराब के ठेके का नाम नहीं है. यह उनके द्वारा बनायी गयी एक सोशल नेटवर्किंग कम्युनिटी है, जिस पर आजकल वो ताबड़तोड़ प्रेम विरोधी ब्लॉग्स पोस्ट कर रहे हैं. करें भी क्यों ना, इसी वैलेंटाइन्स डे पर उनका दिल जो टूटा है. टूटे दिल की भड़ास निकलने के लिए दूबे जी ने यह तरीका क्यों अपनाया, यह पूछते ही उन्होंने मुझे तुरंत डस लिया. कहने लगे कि आजकल यूएसबी प्लगइन की तरह आसान हो चुके रिश्तों और संबंधों की जोड़-तोड़ से अच्छा तो उनके स्टफी का प्यार है, जो बिना किसी शर्त के है. वो चाहे उसे कितना भी डांट-डपट लें पर उसकी ईमानदारी और निश्छल प्रेम एक यूनिवर्सल कॉन्सटेंट की तरह बना रहता है.
स्टफी उनके द्वारा पाला गया नया नया डॉगी है. मोहब्बत में दिल टूटा तो कुत्ता पाल लिया, इस फलसफे के पीछे अब दूबे जी की जो भी मंशा हो पर छेड़ने के लिए मैंने उनसे पूछ ही लिया कि उनके अनुसार आखिर प्यार है क्या? कहने लगे कि प्यार वो है जो क्लास रूम, ऑफिस आदि से शुरू होकर पार्को, कैफेटेरिया के आसपास, मल्टीप्लेक्सेस से गुजरते हुए खत्म किसी दोस्त के खाली पड़े फ्लैट पर होता है. एक जमाना था कि जब प्यार कॉलेज लाइब्रेरी के खामोश माहौल में भी पनपता था. पर प्यार ने कब लाइब्रेरी के सार्वजनिक माहौल से निकलकर साइबर कैफे के तंग दायरे को अपना लिया, पता ही नहीं चला. मैंने विरोध किया कि वो सिर्फ अपने निजी अनुभव पर लव आजकल को नहीं तौल सकते पर ऐसा बोलते ही उन्होंने तुरंत किसी अखबार में प्रकाशित एक सर्वे का आंकड़ा मेरे ऊपर उगल दिया.
इसके अनुसार वैलेंटाइन-डे के मौके पर अब चॉकलेट्स, फूलों, सॉफ्ट टॉय से कहीं ज्यादा कंडोम्स और वियाग्रा की बिक्री बढ़ जाती है. दिलजले दूबे जी से और बहस करना बेकार था. पर मैं भी सोचने लगा कि क्या वाकई लव आजकल बदल गया है? लव जैसे भारी-भरकम विषय पर कोई बात कहने के लिए फिलहाल मेरी उम्र और तजुर्बा दोनों ही कम हैं, पर एक बात तो पक्की है कि समाज में हर ट्रेंड और रिश्तों का स्वरूप बदल रहा है और लव भी उससे अछूता नहीं है. भले ही आज प्यार में भावनाएं पत्थरों में लिपटकर डेस्टिनेशन ए मोहब्बत तक पहुंचने के बजाय एसएमएस, ईमेल्स के जरिये जा रहा हो पर प्यार जैसा भी है, उसे उसी स्वरूप में हमें स्वीकार करना होगा.
वैसे हमारे यहां रीति को कुरीति बनाने की परंपरा बहुत पुरानी है. समाज की जड़ों में गहराई तक बस चुका डाउरी सिस्टम इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण है. गार्जियन का एक्सप्रेशन ऑफ केयर कब कंप्लशन बन गया पता ही नहीं चला. शादियों में खुशी में छुड़ाये जाने वाले पटाखों ने भी अपना स्वरूप बदलकर असलहों से फायरिंग का रूप ले लिया. प्रतिवर्ष कितने ही इस फिजूल के पॉम्प एंड शो में अपनी जान गंवा देते हैं. वैसे बदलाव हमेशा नकारात्मक ही नहीं होते. क्रिकेट का भी स्वरूप बदला तो रोमांच और मनोरंजन से भरपूर ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट का उदय हुआ. पर इसके इतना पॉपुलर होने के बाद भी हम नहीं भूले कि क्रिकेट का असली स्वरूप टेस्ट क्रिकेट ही है. दसवीं और बारहवीं बोर्ड एग्जाम में अब ग्रेडिंग सिस्टम लाने की तैयारी है. शिक्षा का भी स्वरूप बदला है पर हम नहीं भूले हैं कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ज्ञान है. किसी के लिए बोझ बनना नहीं.
इसी कड़ी में हमने होली को भी नहीं छोड़ा। अभी-अभी होली बीती है। प्रशासन का साफ आदेश था कि जो होली नहीं खेलना चाहते, उन्हें जबरदस्ती रंग ना लगाया जाए. फिर भी हम नहीं माने. फागुन की मस्ती में रंगों के अलावा कीचड़, पेंट, वार्निश, पोटाश और न जाने कौन-कौन से सबस्टीट्यूट का प्रयोग जमकर हुआ. बुरा न मानो होली है की टैगलाइन प्रयोग जमकर हुआ. विरोधियों के कपड़े होली के नाम पर फटकर शहीद हो गए. सड़कों पर शराबियों की धींगामुश्ती आम ऩजारे की तरह दिखाई दी. अब होली की दिन शराब की बढ़ती एक्सेप्टेंस देखकर तो यही लगता है कि शायद एक दिन होली को सरकार मद्यपान दिवस न घोषित कर दे. कभी-कभी ऐसा होता है कि बड़े-बड़े मुद्दों पर बात करते-करते छोटे मसले अक्सर नजरअंदाज कर दिए जाते हैं. उम्मीद है, अब हम इस तरह के नजरअंदाजी से बचने की एक कोशिश तो जरूर करेंगे. यानी तस्वीर में जो रंग हैं, उन्हें उनकी ओरिजनैलिटी के साथ एक्सेप्ट करने में ही भलाई है.

1 comments:

merinajrmeranajria said...

bhut badhiya.... likhte to aap accha hai hi phir bhi agr aapki jindgi mein dubey ji na hote to usmein humar khi gayab ho skta tha. to dubey ji aur unke nye kukur ko b special thanks... umeed hai dubey ji ki trh unka nya kutta bhi lekhn k kuch naye krantikari parivartano ki neev rakhega.....