विसंगतियों को रूपायित करता उपन्यास
1 day ago
भारत पाकिस्तान में एक बार सुलह हो सकती है पर दूबे जी और तिवारी जी का आपसी कलह कभी खत्म नही हो सकता.पर इनके बीच होने वाला कोई भी विवाद,घिसी पिटी देख लेने की धमकी और बोल बचन में ही निपट जाता है.वैसे भी,हिंसा किसी विवाद का हल नही.पर रोजाना की खिटखिट सुनने के नाते मैं अक्सर सोचता हूँ कि एक दिन दोनों आर पार का फैसला ही कर लें.लेकिन सिर्फ मेरे सोचने से क्या होता है?दूबे जी का आरोप है कि तिवारी जी,अपने गुर्गों से कहकर रोजाना उनके मेनगेट के सामने कूड़े का अम्बार लगवा देते हैं.तिवारी जी का भी यही मानना है कि उनके घर के चाहरदीवारी के अन्दर अक्सर मिलने वाले सब्जियों के छिलकों और प्लास्टिक रैपर्स के पीछे दूबे जी का ही हाथ है.ताज़ा प्रकरण में किसी ने छुट्टियों में गाँव गए दूबे जी के चाहरदिवारियों पर 'यहाँ पेशाब करना मना है' लिख दिया.लौट के आने तक उनके घर की दीवारों की हालत कुछ यूं थी कि उन्हें कुछ दिनों के लिए किराए के मकान में शिफ्ट होना पड़ा.अब इसमें तिवारी जी का हाथ हो या ना हो,पर सवाल यह है कि कि हम वो काम ज्यादा क्यों करते हैं जो हमें मना किया जाता है?मसलन जहाँ वाहन खड़ा करने या पोस्टर चिपकाने की मनाही होती है,वहां ही इन नियमों की ज्यादा धज्जियाँ उड़ाइ जाती हैं. सरकार चीखती रह गयी कि बिना आइ एम आइ के मोबाइल इस्तेमाल करना सही नहीं पर जब तक उनपर पाबंदी न लगी,हम नही माने.शराब पीकर गाडी चलाना मना है,सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान मना है,atm में एक से ज्यादा लोगों का प्रवेश मना है.सड़कों और दीवारों पर पान मसाला खा कर थूकना मना है,ट्रेन के स्लीपर क्लास में जनरल का टिकट लेकर चलना मना है,ऑटो में ज्यादा सवारी भरना मना है,पाइरेटेड सीडी और डीवीडी का प्रयोग मना है,शादी में असलहों से फाइरिंग मना है,१८ साल से कम उम्र के लोगों का वयस्क फिल्मों हेतु सिनेमा हाल में प्रवेश मना है.मना तो बहुत कुछ है साहब,पर मानता कौन है?हाल में ही अमेरिका यात्रा से लौटे मेरे गुरु जी का मानना है कि वहां लोगों को 'जुगाड़' यन्त्र के बारे में नही पता.शायद तभी वो नियमों के पालन के प्रति ज्यादा सजग हैं. वैसे भी हम भारतीय जुगाड़ के प्रति ज्यादा आशान्वित रहते है,शायद यही भावना हमें नियमों को ना मानने के लिए प्रेरित करती है.ट्रेफिक पुलिस के हत्थे चढ़े,तो बड़े साहब लोगों का जुगाड़.पासपोर्ट ,ड्राइविंग लाइसन्स नही बन रहा तो दलालों का जुगाड़.कहीं एडमीशन नही मिल रहा तो फर्जीवाड़े का जुगाड़.यानि जुगाड़ सर्वोपरि है.जुगाड़ पर हम कितने आधारित हैं,इसका एक्जाम्पल सुनिए.मेरे एक मित्र ने जब मुझे छोटे शहर छोड़ बड़ी जगहों पर करीयर हेतु प्रयासरत होने के लिए सुझाव दिया तो मैंने प्रयास करने से पूर्व ही जुगाड़ के बारे में पूछ लिया.मेरे एक अन्य मित्र कुछ दिनों के लिए गुजरात गए थे.चूंकि गुजरात में शराब पीना मना है,इसलिए उन्होंने मात्र कुछ ही किमी दूर केद्र शाषित प्रदेश दमन और दीव में जाकर जुगाड़ बना ही लिया.दिल्ली नॉएडा सीमा में रहने वाले बहुतेरे शराब प्रेमी कीमतों के फर्क को मिटाने के लिए रोजाना सीमा लांघते हैं. एक सर्वे के अनुसार सिगरेट के पैकेटों पर छपी मौत की चेतावनी वास्तव में धूम्रपान करने वाले लोगों को इसके लिए और प्रेरित करती हैं।यानि स्प्रिंग को जितना दबाया जाएगा,उतना ही तेज रेएक्शन होगा.हाल में ही,उच्चतम न्यायालय ने भी केन्द्र सरकार के वेश्यावृत्ति के प्रति रुख पर टिप्पणी करते हुए पूछा था कि अगर सरकार इस पेशे पर पाबंदी नहीं लगा सकती तो इसे कानूनी मान्यता क्यों नहीं दे देती?कुल मिला के,हम मना की हुई चीजों को करने में ज्यादा फक्र महसूस करते हैं.शायद तभी राम गोपाल वर्मा की फिल्मों 'डरना मना है'और 'डरना जरूरी है' में डरना 'मना' है ज्यादा सफल हुई.यानि सिर्फ मना करना समस्या का हल नही.'बिन भये होए न प्रीति' में विश्वास करने वाला हमारा समाज कब खुद से अपने बारे में सोचना शुरू करेगा,यह देखना तो दिलचस्प होगा.फिलहाल तब तक मनमानी के इस दौर का आनंद लेने में ही भलाई है.
Posted by
अभिषेक
at
6:41 AM
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1 comments:
आपकी बातें अच्छी लगी , और अहसास भी । ब्लॉग कि दुनिया में एक खुले दिल के ब्लॉगर का स्वागत है।
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