Wednesday, January 20, 2010

यह मर्ज़ कुछ खास है..

फिल्में समाज का दर्पण है,आजकल दूबे जी इस बात को नहीं मानते .कुछ हफ़्तों पहले उन्होंने अमिताभ बच्चन की 'पा' देखी है.बताने लगे कि फिल्म तो ठीक है पर उसे देखने के बाद से उनके दिल में आजकल के डाईरेकटरों के प्रति खासी नाराज़गी पैदा हो गयी है.'नाराज होकर भी क्या बिगाड़ लोगे' की भावना दिल में रखकर जब मैंने इसके बारे में पूछा तो बताने लगे कि यह आजकल के डाईरेक्टर ऐसी ऐसी बीमारियों पर फिल्में बनाते हैं जो कभी सुनी ही नहीं.उनका इशारा जल्द आ रही 'माई नाम इस खान' में शाहरुख़ की बीमारी के तरफ था.कहने लगे कि इससे अच्छा तो उनका दौर था जब हीरो कैनसर,दमा,ब्रेन टूमर से आगे की बीमारियों से ग्रसित होने के बारे में सोच भी नहीं पाता था.मैंने समझाया कि हर युग में अलग प्रकार की बीमारियों का फॉर्मेट होता हैं .इन आउटडेटेड बीमारियों से तो आजकल हर कोई ग्रसित है.इन्हें देखने कौन हॉल में जाने वाला है?


बहस छिड़ चुकी थी.दूबे जी कहने लगे कि जब आजकल रेअलिस्टिक फिल्में ज्यादा बन रहीं हैं तो बीमारियाँ भी रेअलिस्टिक होनी चाहिए.मधुमेह,बवासीर,रतौंधी,मोतियाबिंद,दाद-खाज,जैसी आम जनता की बीमारियों से जुडी समस्याओं को,फिल्मों के द्वारा क्यों नहीं सामने लाया जाता?उनके द्वारा गिनाये गए इन बीमारियों की लिस्ट में से अधिकतर से वो ग्रसित हैं सो मैंने बहस करके उनके घावों पर नमक छिड़कना सही नहीं समझा.बात आई गयी हो गयी पर इस बहस ने एक नए सवाल को जन्म दिया.क्या वाकई बॉलीवुड उन बीमारियों को ज्यादा तरजीह देता है जो बहुत कम या रेयर हैं.गजनी के आमिर खान को anterograde amnesia नामक बीमारी है,तो पा में अमिताभ बच्चन प्रोज़ेरिया नामक बीमारी से पीड़ित हैं.माई नाम इस खान में शाहरुख़ खान को Asperger syndrome(autism)परेशान कर रहा है,तो 'ब्लैक' में भी अमिताभ बच्हन Alzheimer's disease ढो रहे होते हैं.सारी बीमारियाँ लाखों में एक को होती है.
वैसे इन ख़ास बीमारियों और बॉलीवुड का पुराना नाता है.'आनंद' के राजेश खन्ना को कौन भुला सकता है जिसको 'लिम्फोसार्कोमा आफ इन्टेस्ताईन' था.आज भी हृषिकेश मुखर्जी की यह अप्रतिम कृति हमारे आँखों में आंसू ला देता है.वैसे काका ने 1969 में एक मूवी 'ख़ामोशी' भी की थी जिसमे वो acute mania से ग्रसित थे.अमिताभ बच्चन की हालिया 'पा'को छोड़ भी दें तो उन्होंने अनेक ख़ास बीमारी ग्रस्त किरदार निभाए हैं.१९७४ में उन्होंने 'मजबूर' की थी जिसमे वो terminal brain tumor से पीड़ित थे.ब्लैक का उनका किरदार तो भूला ही नहीं जा सकता.अजय देवगन ने भी 'दीवानगी' में split personality नामक चिड़िया के बारे में बताया.हाल फिलहाल के फिल्मों की बात करें तो २००७ में रीलीज़ 'तारे ज़मीन पर' एक ऐसे बच्चे की भावनात्मक कहानी थी जिसे dyslexia नामक बीमारी थी.इसी साल आई 'भूल-भुलैया' में विद्या बालन dissosiative identity disorder से पीड़ित थीं.२००५ में आई 'मैंने गाँधी को नहीं मारा' में अनुपम खेर dementia नामक बीमारी से ग्रसित थे.

२०१० में रीलीज़ होने वाली गुजारिश में रितिक रोशन Paraplegia से ग्रस्त व्यक्ति का किरदार निभा रहे हैं.कुल मिलाके सवाल यह है की इन ख़ास बीमारियों की बोलीवुड को जरूरत क्यों है?पहली बात तो यह है कि साधारण भारतीय आम मुद्दों और बीमारियों को तो अपने ज़िन्दगी में रोज देखता है पर उसे तो तीन घंटों में सिल्वर स्क्रीन पर कल्पना की उड़ान भरनी है.इसी फैनटेसी को शांत करती हैं यह ख़ास बीमारियाँ.बोलीवुड की भाषा में समझें तो शाहरुख़ खान सर्दी,खांसी मलेरिया जैसी बीमारियों से जुड़ना न चाहकर,लवेरिया जैसी टेकनीकल बीमारी से पीड़ित कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. हाँ,एक बात और,यह बीमारियाँ अपने अस्तित्व में होने का प्रमाण भी हमारी फिल्मों के द्वारा ही देती हैं.वर्ना हम लोग़ तो अनेको बीमारियों को मात्र 'बड़े लोगों का फितूर' कहकर टाल देते हैं.इसका एक उदहारण है,तारे ज़मीन पर फिल्म में दर्शील को हुआ dyslexia,जो पढने लिखने में आने वाली एक मनोवैज्ञानिक समस्या है.पूरी अमेरिका की 5-17% आबादी इससे पीड़ित है.आम जनता तो इसे जानती ही नहीं.और अगर किसी बच्चे को दिक्कत होती भी है तो अधिकांशतः लोग़ इसे उसके पढने लिखने में दिल न लगने और नालायकी के प्रथम चरण के रूप में देखने लगते हैं।
लिंक-http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=1/19/2010&editioncode=1&pageno=16

1 comments:

merinajrmeranajria said...

baba as always gyanvardhk aur unda lekhan. waise special thanks hmesha ki trh dubey ji ko hi jayega. kuch naya aur hmesha phle se bhtr aur hmesha bikau badhiya hai...