दूबे जी को शाहरुख़ का अमिताभ से बराबरी करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता.कहने लगे कि बड़े बुजुर्ग से क्या मुकाबला करना.बच्चनवा के उम्र में देख्नेगे कि शाहरुख़ कितना रोल पायेंगे.गलती दूबे जी कि नहीं,मीडिया ने भी शाहरुख़ बच्चन शीतयुद्ध को ऐसे परोसा है कि हर किसी को इन दोनों के बीच न दिखने वाली यह खाई कभी पटते नहीं दिखाई देती.,दूबे जी को तो नया 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' भी नहीं पसंद.उन्हें पुराना वाला ही अच्छा लगता है.वो कुछ मोहब्बतें फिल्म के नारायण शंकर वाले चरित्र की तरह हैं जिसे परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं।
अब इस गाने का चाहे जो भी संस्करण अच्छा हो,पर परिवर्तन और नए चीजों के विरोध की मानसिकता सिर्फ दूबे जी की नहीं,कमोवेश समाज के एक बड़े भाग की है.चलिए इसका एक निजी एक्साम्पल देता हूँ.भारत में जब मोबाइल सेवाएँ शुरू हुईं तो मैं भी उसके प्रारंभिक कन्जुमर्स में से एक था.हालांकि सेवाएँ बहुत महंगी थी सो जाहिर है कि यह सुविधा डैड्स गिफ्ट ही थी पर कुछ लोगों हेतु मेरा छात्र जीवन में मोबाइल फ़ोन प्रयोग करना मेरे नालायकी का प्रतीक बन गया.आज देखिये.हालात् कितन बदल गए हैं.रोटी,कपडा मकान के साथ मोबाइल भी एक दैनिक जरूरत बन गयी है. इसके बिना तो सामाजिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
हाल ही में एक अत्यंत प्रसिद्ध महिला आधारित मैगजीन गृहलक्ष्मी ने स्पेशल लान्जरी गाईड लांच की है.घरेलु महिलाओं में अत्यंत प्रचलित इस मैगजीन का यह नया तेवर अचानक से कुछ लोगों के आँखों में चुभ सकता है.पर इस तरह का बदलाव इस बात का घोतक है कि हम अब परिवर्तनों को स्वीकार करने में सक्षम हैं.अब हम उन बातों पर खुलकर बात कर सकते हैं जो कभी सिर्फ एक महिला घर की बड़ी महिलाओं से ही करना पसंद करतीं थीं.इसका एक और उदहारण कई प्रसिद्ध रास्ट्रीय पत्रिकाओं द्वारा कराये जा रहे सेक्स सर्वें हैं.सेक्स को लेकर जो हमारी रुढिवादिता है,वो किसी से छुपी नहीं पर इन सर्वेस में लोगों की बढती भागेदारी यह बताती हैं कि बंदिशें टूट रहीं हैं।विज्ञापनों की भी भाषा बदल गयी है.'उन दिनों की बात' बदलकर अब 'हैव अ हैप्पी पीरीयड ' हो गयी है.याद है जब दुलारा फिल्म का 'मेरी पैंट भी सेक्सी' गीत में 'सेक्सी' सेंसर के दवाब में 'फैनसी' हो गया था.आजकल अखबारों के हेड लाइन्स से लेकर सामान्य बोलचाल तक में यह शब्द स्वीकार्य हो चुका है.
वैसे हम पूरी तरह से भी नहीं बदले हैं.यह वही देश है जहाँ रोमांटिक फिल्मों को सपरिवार देखने वाले लोगों द्वारा प्रेम संबंधों में पड़े जोड़ों को मौत के घाट उतर दिया जाता है.जल्द ही वैलेंटाइन डे भी आने वाला है.संस्कृति और सभ्यता के नाम पर फिर राजनीति होगी.प्रेमी जोड़े सरेआम बे इज्ज़त किये जायेंगे.मौके पर घिर गयी लड़कियों से छेड़ छाड़ होगी.मीडिया के कैमरों में यह सब कैद होकर हमें भी दिखेगा.पुलिस फिर सख्ती दिखाएगी, पर यह चीजें रुकेंगी नहीं. मोहब्बतें में तो नारायण शंकर ने भी आखिर में बदलाव को स्वीकार कर लिया था पर समाज में फैले इन अनगिनत नारायण शंकरो को बदलने के लिए भी एक राज आर्यन मल्होत्रा की जरूरत है,क्या आपको नहीं लगता?