Tuesday, June 22, 2010
Posted by अभिषेक at 11:28 PM 5 comments
Monday, May 24, 2010
rishta.com
Posted by अभिषेक at 8:37 PM 0 comments
Saturday, May 1, 2010
पागलपंथी भी जरूरी है
Posted by अभिषेक at 9:42 AM 0 comments
Thursday, March 18, 2010
बूँद बूँद का सपना..
Posted by अभिषेक at 3:24 AM 1 comments
Wednesday, March 3, 2010
तस्वीर के उस पार
Posted by अभिषेक at 7:54 PM 1 comments
Thursday, January 28, 2010
READY FOR THE CHANGE?
दूबे जी को शाहरुख़ का अमिताभ से बराबरी करना बिलकुल अच्छा नहीं लगता.कहने लगे कि बड़े बुजुर्ग से क्या मुकाबला करना.बच्चनवा के उम्र में देख्नेगे कि शाहरुख़ कितना रोल पायेंगे.गलती दूबे जी कि नहीं,मीडिया ने भी शाहरुख़ बच्चन शीतयुद्ध को ऐसे परोसा है कि हर किसी को इन दोनों के बीच न दिखने वाली यह खाई कभी पटते नहीं दिखाई देती.,दूबे जी को तो नया 'मिले सुर मेरा तुम्हारा' भी नहीं पसंद.उन्हें पुराना वाला ही अच्छा लगता है.वो कुछ मोहब्बतें फिल्म के नारायण शंकर वाले चरित्र की तरह हैं जिसे परिवर्तन बिलकुल पसंद नहीं।
अब इस गाने का चाहे जो भी संस्करण अच्छा हो,पर परिवर्तन और नए चीजों के विरोध की मानसिकता सिर्फ दूबे जी की नहीं,कमोवेश समाज के एक बड़े भाग की है.चलिए इसका एक निजी एक्साम्पल देता हूँ.भारत में जब मोबाइल सेवाएँ शुरू हुईं तो मैं भी उसके प्रारंभिक कन्जुमर्स में से एक था.हालांकि सेवाएँ बहुत महंगी थी सो जाहिर है कि यह सुविधा डैड्स गिफ्ट ही थी पर कुछ लोगों हेतु मेरा छात्र जीवन में मोबाइल फ़ोन प्रयोग करना मेरे नालायकी का प्रतीक बन गया.आज देखिये.हालात् कितन बदल गए हैं.रोटी,कपडा मकान के साथ मोबाइल भी एक दैनिक जरूरत बन गयी है. इसके बिना तो सामाजिक जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
हाल ही में एक अत्यंत प्रसिद्ध महिला आधारित मैगजीन गृहलक्ष्मी ने स्पेशल लान्जरी गाईड लांच की है.घरेलु महिलाओं में अत्यंत प्रचलित इस मैगजीन का यह नया तेवर अचानक से कुछ लोगों के आँखों में चुभ सकता है.पर इस तरह का बदलाव इस बात का घोतक है कि हम अब परिवर्तनों को स्वीकार करने में सक्षम हैं.अब हम उन बातों पर खुलकर बात कर सकते हैं जो कभी सिर्फ एक महिला घर की बड़ी महिलाओं से ही करना पसंद करतीं थीं.इसका एक और उदहारण कई प्रसिद्ध रास्ट्रीय पत्रिकाओं द्वारा कराये जा रहे सेक्स सर्वें हैं.सेक्स को लेकर जो हमारी रुढिवादिता है,वो किसी से छुपी नहीं पर इन सर्वेस में लोगों की बढती भागेदारी यह बताती हैं कि बंदिशें टूट रहीं हैं।विज्ञापनों की भी भाषा बदल गयी है.'उन दिनों की बात' बदलकर अब 'हैव अ हैप्पी पीरीयड ' हो गयी है.याद है जब दुलारा फिल्म का 'मेरी पैंट भी सेक्सी' गीत में 'सेक्सी' सेंसर के दवाब में 'फैनसी' हो गया था.आजकल अखबारों के हेड लाइन्स से लेकर सामान्य बोलचाल तक में यह शब्द स्वीकार्य हो चुका है.
वैसे हम पूरी तरह से भी नहीं बदले हैं.यह वही देश है जहाँ रोमांटिक फिल्मों को सपरिवार देखने वाले लोगों द्वारा प्रेम संबंधों में पड़े जोड़ों को मौत के घाट उतर दिया जाता है.जल्द ही वैलेंटाइन डे भी आने वाला है.संस्कृति और सभ्यता के नाम पर फिर राजनीति होगी.प्रेमी जोड़े सरेआम बे इज्ज़त किये जायेंगे.मौके पर घिर गयी लड़कियों से छेड़ छाड़ होगी.मीडिया के कैमरों में यह सब कैद होकर हमें भी दिखेगा.पुलिस फिर सख्ती दिखाएगी, पर यह चीजें रुकेंगी नहीं. मोहब्बतें में तो नारायण शंकर ने भी आखिर में बदलाव को स्वीकार कर लिया था पर समाज में फैले इन अनगिनत नारायण शंकरो को बदलने के लिए भी एक राज आर्यन मल्होत्रा की जरूरत है,क्या आपको नहीं लगता?
Posted by अभिषेक at 8:16 AM 1 comments
Wednesday, January 20, 2010
यह मर्ज़ कुछ खास है..
बहस छिड़ चुकी थी.दूबे जी कहने लगे कि जब आजकल रेअलिस्टिक फिल्में ज्यादा बन रहीं हैं तो बीमारियाँ भी रेअलिस्टिक होनी चाहिए.मधुमेह,बवासीर,रतौंधी,मोतियाबिंद,दाद-खाज,जैसी आम जनता की बीमारियों से जुडी समस्याओं को,फिल्मों के द्वारा क्यों नहीं सामने लाया जाता?उनके द्वारा गिनाये गए इन बीमारियों की लिस्ट में से अधिकतर से वो ग्रसित हैं सो मैंने बहस करके उनके घावों पर नमक छिड़कना सही नहीं समझा.बात आई गयी हो गयी पर इस बहस ने एक नए सवाल को जन्म दिया.क्या वाकई बॉलीवुड उन बीमारियों को ज्यादा तरजीह देता है जो बहुत कम या रेयर हैं.गजनी के आमिर खान को anterograde amnesia नामक बीमारी है,तो पा में अमिताभ बच्चन प्रोज़ेरिया नामक बीमारी से पीड़ित हैं.माई नाम इस खान में शाहरुख़ खान को Asperger syndrome(autism)परेशान कर रहा है,तो 'ब्लैक' में भी अमिताभ बच्हन Alzheimer's disease ढो रहे होते हैं.सारी बीमारियाँ लाखों में एक को होती है.
२०१० में रीलीज़ होने वाली गुजारिश में रितिक रोशन Paraplegia से ग्रस्त व्यक्ति का किरदार निभा रहे हैं.कुल मिलाके सवाल यह है की इन ख़ास बीमारियों की बोलीवुड को जरूरत क्यों है?पहली बात तो यह है कि साधारण भारतीय आम मुद्दों और बीमारियों को तो अपने ज़िन्दगी में रोज देखता है पर उसे तो तीन घंटों में सिल्वर स्क्रीन पर कल्पना की उड़ान भरनी है.इसी फैनटेसी को शांत करती हैं यह ख़ास बीमारियाँ.बोलीवुड की भाषा में समझें तो शाहरुख़ खान सर्दी,खांसी मलेरिया जैसी बीमारियों से जुड़ना न चाहकर,लवेरिया जैसी टेकनीकल बीमारी से पीड़ित कहलाना ज्यादा पसंद करते हैं. हाँ,एक बात और,यह बीमारियाँ अपने अस्तित्व में होने का प्रमाण भी हमारी फिल्मों के द्वारा ही देती हैं.वर्ना हम लोग़ तो अनेको बीमारियों को मात्र 'बड़े लोगों का फितूर' कहकर टाल देते हैं.इसका एक उदहारण है,तारे ज़मीन पर फिल्म में दर्शील को हुआ dyslexia,जो पढने लिखने में आने वाली एक मनोवैज्ञानिक समस्या है.पूरी अमेरिका की 5-17% आबादी इससे पीड़ित है.आम जनता तो इसे जानती ही नहीं.और अगर किसी बच्चे को दिक्कत होती भी है तो अधिकांशतः लोग़ इसे उसके पढने लिखने में दिल न लगने और नालायकी के प्रथम चरण के रूप में देखने लगते हैं।
लिंक-http://inext.co.in/epaper/Default.aspx?edate=1/19/2010&editioncode=1&pageno=16
Posted by अभिषेक at 5:45 PM 1 comments
Tuesday, January 5, 2010
उड़ियो,ना डरियो,कर मनमानी
Posted by अभिषेक at 6:41 AM 1 comments